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आर्थिक संदर्भ
रूप भी यह माना गया जो सदा ईश्वर था और ईश्वर रहेगा । इस मान्यता के विरुद्ध नर से नारायण का विचार वाद में चला । जैन दर्शन में 'यात्मा ही परमात्मा बनती है-यह कर्म सिद्धान्त प्रारंभ से ही था । बौद्ध दर्शन में प्रात्मा को 'क्षणे-क्षणे परिवर्तन शील' कहकर देह के समान नश्वर बता दिया गया।
विधारा के वे तीन विन्दु इस प्रकार नित्यवाद (वेदान्त), अनित्यवाद (बौद्ध) तथा नित्यानित्यवाद अथवा स्यावाद (जैन) के रूप में उभरे । जनों का यह स्यावाद अपेक्षावाद भी कहलाता है । महावीर का विचार था कि किसी भी तत्त्व पर एकांगी दृष्टि नहीं होनी चाहिये बल्कि उसके स्वरूप को सभी अपेक्षामों से जानना चाहिये। वस्तु-स्वल्प का सर्वागीण दर्शन ही सत्य से साक्षात्कार करा सकता है। इस विधारा में विचार समन्वय का मार्ग केवल महावीर ने ही दिखाया अथवा इसे यों कहें कि समाज के प्रत्येक सदस्य की वैचारिकता को जगाने का उस युग में यह पहला प्रयास था।
महावीर के स्याहाद का समाजवादी दर्शन की दृष्टि से यह महत्त्व है कि जहां विचार-क्षेत्र में भी व्यक्ति तंत्र चल रहा था, वहां महावीर ने उसे सबसे पहले सामाजिक स्वरूप प्रदान किया कि प्रत्येक के विचार में कुछ न कुछ सत्यांश होता है, इसलिये प्रत्येक के विचार का समादर करो और विखरे हुए सत्यांगों को जोड़कर पूर्ण सत्य की उपलब्धि की अोर यत्नशील रहो । व्यक्ति से समाज की ओर देखने का यह स्पष्ट संकेत था। व्यक्ति और समाज के सम्बन्धों की शुरुवात :
व्यक्ति-व्यक्ति के सह-जीवन से ही समाज की रचना होती है और यह सह-जीवन का क्रम जितना घनिष्ठ होता गया है, सामाजिकता का क्षेत्र अभिवृद्ध होता रहा है। सही हैं कि समाज की आधारशिला व्यक्ति पर टिकी है तथा व्यक्तियों के समूह अथवा व्यक्तिसमूहों के समूह का नाम ही तो मानव समाज है। ये व्यक्ति समूह क्षेत्र, धर्म, संस्कृति अथवा अन्य आधारों पर निर्मित होते रहे हैं, किन्तु 'अर्थ', इन समूहों के संघटन और . विघटन का प्रमुख आधार रहा है । यह तथ्य समाज-विकास के वैज्ञानिक इतिहास से स्पष्ट उजागर होता है।
इस वैज्ञानिक इतिहास का मानना है कि आदिम कालीन मानव स्वतंत्र था, समाजबद्ध नहीं था क्योंकि तब न तो अर्जन की आवश्यकता थी और न सम्पत्ति के स्वामित्व का अभ्युदय ही हुआ था । उसे प्रकृति से जीवन-निर्वाह के साधन मिल जाते थे और वह निश्चिन्त था। किन्तु जब प्रकृति की कृपा कम होने लगी, तब मनुष्य को अपने श्रम की आवश्यकता हुई। पशु-पालन से कृपि का आविष्कारं इसी क्रम में हुआ । कृपि ने मनुष्य के एकाकीपन को तोड़ दिया। उसे समूह (पहले परिवार, फिर जाति आदि) बनाकर एक स्थान पर वसने की आवश्यकता हो गई। जिस खेत को वह जोतता था, वह उसकी अपनी सम्पत्ति माना जाने लगा। इस तरह समाज में अर्थ ने केन्द्र स्थान बनाना शुरू किया। समाज नियंत्रण की डोर उस वर्ग के हाथ में रहने लगी जो अर्थ-व्यवस्था को अपने हाथ में रख सकता था । सामन्तवाद से पूजीवाद तथा साम्राज्यवाट तक का विकास इसी स्थिति को स्पष्ट करता है।
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