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नवीन समाज रचना स्याद्वाद पर आधारित हो
स्वाभाविक हो, जगत् की बिगड़ती मानसिक दुरवस्था से चिंतित है । १९७१ के वर्ष को इस संस्था ने 'रंग-वाद और रंग-भेद से संघर्ष' का वर्ष मानकर सारी दुनिया में मनाया । दुनिया भर के विद्वान्, विचारक और तत्त्ववेत्ता इस गहन सवाल पर विचार करने लगे कि कम से कम भविष्य में संसार में रंग-भेद से उत्पन्न तनाव व हिंसा को तो समाप्त किया जा सके । लेकिन यूनेस्को के विचारकों को क्या नजर ग्राया ? सुनिये -
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जगत् के महान् तत्ववेत्ता और चिंतक प्रोफेसर लेवी स्ट्रास ने अत्यन्त विषादपूर्ण स्वरों में कहा :- "हमारे पास यह कहने के लिये कोई आधार नहीं है कि संसार में रंग-भेद कम हो रहा है ।" यह सच है कि सारी दुनिया में असहिष्णुता बरावर बढ़ रही है । आज को दुनिया में भिन्न-भिन्न राज्यों और विचारधारात्रों में आपस में समझौता हो भी जाय तो भी इस जगत् के लोग आपस में प्रेम और सद्भाव से नहीं रह सकेंगे । श्राज तो इन्सानियत अपने ग्राप से नफरत करने लग गई है। रंग-वाद असल में तो, आदमी की प्रादमी के प्रति असहिष्णुता और तग्रस्सुव का ही दूसरा नाम है । समाजशास्त्रियों, मनोवैज्ञानिकों श्री नृतत्त्वज्ञों की वरसों की खोज बीन और अनुसन्धान का निचोड़ यही है कि वास्तविक समस्या है— ग्रादमी के इस संसार के अन्य जीवों के साथ के सम्बन्ध की । पश्चिमी संस्कृति, ने, आदमी को स्वयं अपने ग्रात्माभिमान की इज्जत तो दी परन्तु उसे यही समझाया गया कि वह इस सृष्टि का मालिक है, निर्माण का कर्ता है | इसका नतीजा यह हुआ कि उसने अन्य जीवों का ग्रादर करना छोड़ दिया । मानसिक हिंसा का यही असली स्वरूप है ।
प्रोफेसर स्ट्रास से पूछा गया - वैज्ञानिक विचारधारा का प्रसार और प्रचार, क्या इस रंग-भेद के विष को समाप्त नहीं कर डालेगा ? प्रोफेसर साहब ने कहा- नहीं। इस बारे में तो हम सव नृतत्त्वज्ञ और समाजशास्त्री एकमत हैं । केवल ज्ञान का प्रसार, विज्ञान का प्रचार और आवागमन तथा संचार साधनों का विश्वव्यापी फैलाव, मनुष्य को मानवता से और अपने आप से सहज और उपयुक्त रूप से जीना नहीं सिखला सकेगा । ऐसा मनुष्य - वैज्ञानिक, विश्व का भविष्य का इन्सान, तव विविधता के प्रति श्रादर ही खो बैठेगा और समानता के नाम पर संहारक - एकता की प्रतिष्ठा करने लगेगा । आदमी का संकट, केवल
ज्ञान और पूर्वाग्रहों को दूर करने का ही संकट नहीं है । यही होता तो सम्पूर्ण सुशिक्षित समाज, हिंसा-द्वप से परे, एक आदर्श समाज हो सकता था, परन्तु ऐसा तो है नहीं ।
तब ? हम इतिहास के चक्र को तो बदल नहीं सकते । पुरानी समाज व्यवस्था में जा नहीं सकते । पीछे लौटना मुमकिन है । आगे बढ़ना सचमुच में प्रगति नहीं, विनाश का नवीन रास्ता नापना ही है ।
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यूनेस्को के विद्वान विचारक चुप हो गये । वे केवल आदमी के भविष्य के इतिहास के परिवर्तन पर भरोसा कर सकते हैं । काश, उन्हें महावीर याद आता । ( वैसे - प्रोफेसर साहब ने कहा भी -- मेरी इच्छा है, हर जगह का आदमी इस बारे में - बुद्ध तथा पूर्वी देशों के दर्शन से प्रेरणा ग्रहरण करे । सब प्रकार के जीवों के प्रति सम्पूर्ण यादर और श्रद्धा ही ग्रादमी के भविष्य को उज्ज्वल रूप दे सकती है 1 )