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... जो भी उत्पादन हो उसे सब बांटकर खायें.. ... . वे (कर्तव्य भावना वाले कुछ लोगों को, छोड़कर) मिलावट, रिश्वत, टैक्स चोरी,
ब्लेक मार्केट आदि से पैसा.कमाने का प्रयत्न करते हैं। जिनके हाथ में सत्ता . . है, संगठन की शक्ति है या जिनमें तोड़-फोड़ आदि कानून विरोधी हरकतें करके
अपनी बात मनवा लेने की शक्ति है, वे उसे कानूनी रूप देकर अपनी प्राय वढ़वा लेते हैं चाहे देश की गरीवी का, विचार करते हुए उसका कोई औचित्य न हो। मिलावट, टैक्स चोरी आदि की रोक के लिए कानून बनाये जाते हैं परन्तु वे सब असफल हो रहे हैं और अपराध बढ़ते जा रहे हैं । स्थिति यहां तक विगड़ गई है कि साधारण आवश्यकता की वस्तु भी चोर बाजार से ही खरीदनी पड़ती है। 'नेता सोचते हैं कि सहकारिता, राष्ट्रीयकरणं व समाजीकरण से सब ठीक हो जायेगा । परन्तु उसमें भी काम करने वालों का केवल नाम बदलता है, चरित्र नहीं बदलता। पहले मालिक कहलाता था, फिर मजदूर कहलाने लगता है, और उससे इतना अंतर और पड़ जाता है कि पहले की अपेक्षा काम भी प्राधा करने लग जाता है।"
इस प्रकार रोग की ज्यों-ज्यों चिकित्सा की जा रही है वह और बढ़ता जा रहा है क्योंकि दवा ही गलत दी जा रही है। अमरीकां आदि सम्पन्न देशों में यद्यपि भोगोपभोग को वस्तुओं का उत्पादन प्रचुर मात्रा में है, धंन भी बहुत है फिर भी वहाँ शांति नहीं है । वहां एक और हिप्पी बढ़ रहे हैं, दूसरी ओर डाकाजनी चोरी, रिश्वत, टैक्स चोरी आदि • अपराध बढ़ रहे हैं। कुछ समय पूर्व संयुक्त राष्ट्र अमरीका के जांच के संघीय कार्यालय
के संचालक श्री जे० एडगर हूवर ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि वहां जिस तेजी से जनसंख्या बढ़ रही है उससे चौगुनी गति से अपराध बढ़ रहे हैं।
अस्तु, आवश्यकता इस बात की है कि भौतिकवाद पर आधारित पाश्चात्य सभ्यता, जिसे राजनीति विज्ञान के माने हुए विद्वान श्री हर्मन फिनर ने "ऊचे.रहन-सहन के स्तर के छद्म वेश में मनुष्य की तृष्णा " (The greed of man masquerading under the garb of a high standard of living.) कहा है. और अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "हिंद स्वराज्य" में महात्मा गांधी ने जिसके लिए लिखा है, "यह सभ्यता अधर्म है, पर इसने यूरोपे वालों पर ऐसा रंग जमाया है कि वे इसके पीछे दीवाने हो रहे हैं जो लोग 'हिन्दुस्तान को बदल कर उस हालत पर ले जाना चाहते हैं जिसका मैंने ऊपर वर्णन किया है वे देश के दुश्मन हैं, पापी हैं" के प्रवाह में और अधिक न बहकर संसार के देशों की सरकारें नवीन समाज रचना के लिए भगवान महावीर द्वारा उपदेशित संयम और अपरि'ग्रह के सिद्धान्त पर आधारित सादे जीवन की अर्थ व्यवस्था को (जिसकी संक्षिप्त रूपरेखा पिछले पृष्ठों में दी गई है) अपनायें और भारतवर्ष इसमें पहल करके उस आदर्श को सब देशों के सामने रक्खे। उस समाज व्यवस्था में भोगोपभोग की विषमता का कोई प्रश्न नहीं होने से राष्ट्रवाद, जातिवाद, मजदूरवाद आदि तथा इनके कारण उत्पन्न वर्ग संघर्ष
तथा चरित्र संकट अपने आप समाप्त हो जायेंगे....संसार का लगभग आधा उत्पादन युद्धों . . में तथा युद्धों की तैयारी में स्वाहा हो रहा है। उसका भुखमरी और गरीबी की समस्या
का निवारण करने में उपयोग हो सकेगा और संसार में वास्तविक शांति की स्थापना हो सकेगी।
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