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________________ जो भी उत्पादन हो उसे सब वांटकर खायें ५३. मर ही जाते हैं। ऐसी स्थिति में, विशेप कर ऐसी अवस्था में कि जव एक ओर तो जनसंख्या बढ़ रही है, दूसरी ओर भूमि और प्राकृतिक साधन सीमित हैं प्रत्युत खनिज साधन तो कम होते ही जा रहे हैं और कुछ महत्त्वपूर्ण खनिजों जैसे कोयला के लिए विशेषज्ञों का कहना है कि पचास वर्ष बाद हमारे यहां समाप्त प्राय हो जायेगा। अभी तो संसार के सामने मुख्य समस्या मूलभूत आवश्यकता की वस्तुओं का उत्पादन बढ़ाकर उनकी प्रचुरता करने की तथा सब लोगों को रोजगार देने की है । कम-से-कम इस समस्या का निराकरण होने तक तो यही आवश्यक है कि भगवान महावीर द्वारा उपदेशित संयम और अपरिग्रह या अल्प परिग्रह का सब पालन करें । जो भी उत्पादन हो उसे सब बांट कर खायें और उपयोग करें। इसीलिए महात्मा गांधी ने कहा था कि प्रत्येक व्यक्ति को केवल इतना ही मिले कि वह अपनी सब प्राकृतिक आवश्यकताएं पूरी कर सके, अधिक नहीं। परन्तु अधिक से अधिक सुख साधन बढ़ाने की मनुष्य की तृष्णा का कोई अन्त नहीं है । उसी के कारण यह संसार व्यापी अशान्ति है और उसे नियंत्रित करने के लिए ऐसी व्यवस्था की आवश्यकता है कि एक ओर तो लोगों में संयमी और अल्प परिग्रही जीवन के लिए भावना पैदा हो और दूसरी ओर उत्पादन को सादे जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति तक सीमित कर, उनकी प्रचुरता की जावे ताकि विलासिता, शानशौकत और फैशन की वेशकीमती वस्तुएं व साधन जिन्हें, धनवान व साधन सम्पन्न लोग ही प्राप्त कर सकते हैं, किसी को उपलब्ध न हो सके । रेल, सिनेमा आदि में केवल एक श्रेणी हो, शफाखानों में केवल जनरल वार्ड हो, कोई होटल विलासिता के साधनों से युक्त न हो, घरेलू उपयोग के लिए प्राइवेट कारें न हों। और इस प्रकार भोगोपभोग के लिए धनवानों का धन निरुपयोगी हो जाने से (और मूलभूत आवश्यकता की वस्तुओं की प्रचुरता हो जाने से उनके लिए भी) -लोगों में संग्रह की तृष्णा न रहे । इस चरित्र संकट का भी तव हो निराकरण हो सकेगा। यहां यह स्पष्ट कर देना भी उचित है कि उसी देश या व्यक्ति को गरीव कहा जा सकता है कि जिसके पास सादा जीवन की आवश्यकताओं-सादा खाना, कपड़ा, शुद्ध पानी, मकान व रोग चिकित्सा के लिए भी पर्याप्त साधन न हो। जिसके पास ये साधन तो हैं परन्तु विलासिता व शानशौकत के साधन नहीं हैं, उसे गरीव नहीं कहा जा सकता, धनवान भले ही नहीं कहा जावे। अतः उपयुक्त व्यवस्था गरीवी की समाज व्यवस्था नहीं होगी प्रत्युत धनवानों तथा सत्ताधीशों द्वारा गरीबों का शोपण समाप्त कर उनकी गरीबी मिटाने की व्यवस्था होगी। इस व्यवस्था में जनहित के लिए धनवानों का धन या सम्पत्ति बल प्रयोग या कानून द्वारा छीनने या अधिकाधिक टैक्स लगाने का भी प्रश्न नहीं पैदा होगा क्योंकि भोग-विलास के लिए या भावी आवश्यकता के लिए धन का अधिक संग्रह निरुपयोगी हो जाने से वे स्वयं उसे जनहित के कार्यों व उद्योग धन्धों में लगाना उचित समझने लगेंगे। यह कथन भी भ्रम पूर्ण है कि ऐसा नियंत्रण लोकतंत्र में सम्भव नहीं है। यह सही है कि लोकतन्त्र में सबको अपना-अपना विकास करने का समान अवसर और स्वतन्त्रता होती है परन्तु जैसा कि पहले कहा गया है, उसका यह भी उद्देश्य है कि जिन लोगों में
SR No.010162
Book TitleBhagavana Mahavir Adhunik Sandarbh me
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNarendra Bhanavat
PublisherMotilal Banarasidas
Publication Year
Total Pages375
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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