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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । (५) पंचास्तिकाय । इस ग्रंथमें १७२ गाथाओं द्वारा आचार्यवरने जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश, इन पांच द्रव्योंको, सदैव अपने नानाविध गुणों और व्यतिरेक रूप पर्यायोंमें प्रवर्तनके कारण अस्तिस्वभाव और अनेक प्रदेशी होनेके कारण कायवन्त बताकर इनको पंचास्तिकायके नामसे निरूपण किया है और इन्हींको उत्पाद, व्यय, ध्रुवके आधीन होनेसे तीनों लोककी रचनाका कारण सिद्ध किया है। इन पंचास्तिकाय द्रव्योंके सदैव परिणमनसे काल द्रव्यकी सत्ता भी सिद्ध होती है परन्तु यह एकप्रदेशी होनेके कारण अस्तिकाय द्रव्योंकी गणनामें नहीं लिया गया है तो भी प्रकरणवश कालद्रव्यका भी गौणरूपसे कहीं २ यथावश्यक वर्णन किया है। यह द्रव्य परस्पर मिलेजुले अपने व्यवहारमें प्रवृत्त रहते हैं, परन्तु तो भी एककी सत्ता दूसरे द्रव्यसे बिल्कुल अलग है। पुन: आचार्यवरने जीव द्रव्यकी संसारी और मुक्त अवस्थाओंका विस्तृत वर्णन किया है और बताया है कि यह जीव जिस शरीरको ग्रहण करता है उसीकी अवगाहनाके अनुसार संकोच या विस्तारको प्राप्त हो जाता है, जीवको स्वभावतः विवेक और विचारशक्ति प्राप्त है उसीके द्वारा उसके स्वाभाविक गुण (ज्ञान और दर्शन ) विकसित होते हैं। संसारी जीव कर्मकर्ता है और उसके फल भोगता है फिर दर्शन और ज्ञानका वर्णन करते हुये जीवसे इनके सम्बंधकी व्याख्या की गई है।
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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