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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य। [५५ नोकर्मके अभावसे संसार-भ्रमणका अभाव होता है। आत्मा और कर्मकी विभिन्नताके जाननेसे ही निजस्वरूपका अनुभव हो सकता है। पूर्व संचित कमौके खिर जानेको निर्जरा कहते हैं, उनके उदय होनेपर सुखदुःख होते हैं, उन्हें ज्ञानीजन वैराग और समभावोंके साथ भोगते हैं जिससे परिणामरूप उनके आगेके लिये पुनः कर्मबन्ध नहीं होता, क्योंकि कर्मबन्धके कारण तो रागद्वेप मोह मिथ्यात्वरूप भाव हैं जिन्हें सम्यक्दृष्टि अपने ज्ञानस्वरूपसे भिन्न जानता है, अतः ज्ञान गुणयुक्त आत्मा ही यथार्थरूपसे कर्मोंकी निर्जरा करनेको समर्थ है। सुतरां अज्ञानी आत्माके दुर्द्धर तप, कठिन व्रत आदि करते हुये भी वास्तविक निर्जरा नहीं होती। ज्ञान और वैराग्यके प्रभावसे ही कर्मोकी निर्जरा करके आत्मा कर्ममलसे स्वच्छ हो जाता है और अपने अंतिम ध्येय मोक्षपदको प्राप्त कर लेता है। जबतक आत्माको अपने और परके लक्षण जानकर भेदविज्ञानरूप विशिष्ट ज्ञान प्राप्त नहीं हो जाता है तब तक वह मिथ्यादृष्टि, अज्ञानी और असंयमी रहकर कर्मबंध करता रहता है । भेदविज्ञान हो जानेपर जब विशुद्धरूपसे ज्ञातादृष्टा हो जाता है, फिर कर्मबंध नहीं करता। • परद्रव्योंके रागभावसे विरक्त होकर प्रत्येक आत्माको मोक्षावस्थाकी प्राप्तिमें सदैव संलग्न हो जाना चाहिये, यही जीवात्माका पवित्र कर्तव्य और अंतिम ध्येय है।
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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