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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य ।
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सार आदिके सदृश्य ही उच्च कोटिकी है, जिससे इनके इस ग्रन्थके कर्ता होनेकी आख्यायिकाका पूर्ण समर्थन होता है ।
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द्रव्यानुयोग और चरणानुयोग सम्बन्धी सिद्धांत पर एकाधिपत्य होनेके कारण स्वामी कुन्दकुन्दने अपनी प्रत्येक रचना में प्रत्येक आवश्यक विषयका थोड़ा बहुत कथन किया है। इसी पद्धतिके अनुसार इन्होंने प्रवचनसारमें भी मुनियोंके आचार सम्बंध में प्रकरणवश कुछ संक्षेपमें वर्णन कर दिया है, परन्तु फिर भी यह देखकर कि इन्होंने प्रत्येक विषयपर भिन्न रूपसे स्पष्ट रचना की है यह कैसे कहा जा
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सकता है कि इन्होंने आचारांग पद्धतिके अनुसार मुनिधर्म जैसे परमावश्यक विषयका स्वतंत्ररूपसे निरूपण न किया हो । नहीं, अवश्य किया और वह मूलाचार ग्रन्थ ही है ।
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वारस अणुवेख्खा के मंगलाचरणकी गाथा १ कुछ परिवर्तन के साथ और गाथा २ ज्योंकी त्यों मूलाचार के आठवें अधिकारके मंगलाचरणकी गाथा ६९१ और ६९२ हैं । और बारस अणुवेख्खाकी गाथा नं० २. १४, २२, २३, ३५, ३६, ४७ पूर्वार्ध, मूलाचार में गाथा नं० ४०३, ६९९ ( कुछ परिवर्तित ) ७०१, ७०२, २२६, ७०९ और २३७ (पूर्वार्ध ) ज्योंकी त्यों हैं ।
नियमसारकी गाथा नं० ६९, ७०, ९९, १००, १०२, १०३, १०४ मूलाचारकी गाथा ३३२, ३३३, ४५, ४६, ४८, ३९, ४२ ज्योंकी त्यों हैं । और नियमसारकी गाथा २. ६२, ६५ कुछ पाठभेदसे मूलाचारकी गाथा २०२, १२, १५ हैं ।
पञ्चास्तिकायकी गाथा ७५, १४८, बोधपाहुड़की गाथा ३३, ३४, चारित्र पाहुड़की गाथा ९, समयसारकी गाथा १३, १५०