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२०] भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य । श्चात् कुन्दकुन्दआचार्यको उत्तराधिकारी पदाधीश निर्दिष्ट किया गया है।
सिद्धान्तदेव कुमारनंदि (जिनचन्द्राचार्य ) ने किसी ग्रंथका निर्माण नहीं किया जो आज हमें उपलब्ध होता, या किसी अनुगत आचार्यने अपने किसी शास्त्रमें उनका नामोल्लेख नहीं किया, यह कोई समर्थ युक्ति जयसेनाचार्यकी उपर्युक्त मान्यता और गुरवावलिके कथनकी सार्थकताको अयथार्थ मान लेनेकी नहीं है । और जबतक कोई प्रबल प्रमाण बाधक न हो साधारणतः प्रत्येक आचार्यके कथन तथा पट्टावलि आदिके लेखोंको प्रमाणित ही मानना चाहिये।
इस सिद्धान्तके आधीन यह मानना पड़ेगा कि जिनचन्द्राचार्य श्री माघनंदि पदांशवेदीके समसामयिक आचार्य अवश्य थे। तभी तो उनके उत्तराधिकारी हुये।
नामशैली, प्रसिद्ध आख्यायिका, श्री जयसेनाचार्यके उपर्युक्त कथन और श्रुतावतारके इस वर्णन पर कि कुन्दकुन्दस्वामीन गुरु परिपाटीसे आद्य सिद्धान्त शास्त्रोंका ज्ञान प्राप्त करके परिकर्म नामक बृहद टीका-लिखी, एकत्र विचार करनेसे निस्संदेह यही धारणा होती है कि कुमारनंदि आचार्य जो सिद्धान्तशास्त्रके विशेषज्ञ होनेके कारण सिद्धान्तदेवकी उच्च उपाधिसे प्रसिद्ध थे, जैसे सिद्धान्त-प्रवीण और प्रांजल विद्वान आचार्य हमारे चरित्रनायकके शिक्षागुरु होसकते हैं। .
इस मान्यताका भी कोई युक्तियुक्त विरोध नहीं जान पड़ता . कि संभवतः श्री जिनचन्द्राचार्यका ही नन्दिसंघाचार्य द्वारा दीक्षित होने पर नन्द्यान्त नाम कुमारनन्दि था और यह दोनों नाम जिस एक ही आचार्यके थे वहीं हमारे चरित्रनायक श्री कुन्दकुन्दस्वामीके गुरु थे।