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________________ भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य | [१९ .. • अध्ययन करके १२ हजार श्लोक प्रमाण इसके तीन खण्डों की 'परिकर्म' नामक बृहद् टीका निर्माण की । इन सब साक्षियोंकी उपस्थितिमें चरित्रनायक आचार्य श्री गद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिप्य सिद्ध नहीं होते । फिर इन्होंने बोधपाहु में जो कुछ उनको अपना गुरु माननेके विषयमें लिखा है वह केवल परम्परा गुरु मानकर ही भक्तिभावसे कहा है । अब संदेह निवारणार्थ यह देखना भी उचित जान पड़ता है कि आचार्यवर भद्रवाह द्वितीयके भी शिष्य सिद्ध होते हैं या नहीं । इस विषय में न तो स्वयं आचार्यवरने ही इन्हें अपना गुरु माना है और न किसी शिलालेख या शास्त्र अथवा अन्य प्रकारसे इसका कोई प्रमाण मिलता है । भद्रबाहु द्वितीयका समय वि० सं० ११० तक रहा है, जिसका गणितात्मक विवरण "समय" प्रकरण में स्पष्ट रू से दिया है । फिर वि० सं० २१३ के बाद निर्मित हुये षट्खंडागम महाशास्त्र के टीकाकार आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी एक शताब्दि पूर्व होनेवाले आचार्य भद्रबाहु द्वितीयके शिष्य कैसे माने जासकते हैं ? परन्तु कुन्दकुन्द जैसे प्रज्ञाप्रधान सिद्धांतवेत्ताको निगुरु मान लेना भी युक्तियुक्त नहीं जान पड़ता । अतः वे किस गुरुके शिष्य थे इसका विशेष अन्वेषण करना आवश्यक है । इन आचार्यवरकी रचना प्राभृतत्रयके वृत्तिकार श्री जयसेनाचार्यने वि० [सं० की १४ वीं शताव्दिमें पंचास्तिकायकी टीकाके प्राक् कथनमें इन्हें सिद्धान्तदेव कुमारनन्दिका शिष्य लिखा है, और नन्दिसंघकी न्गुरवाचलिमें प्रथम आचार्य माघनन्दि, उनके बाद जिनचन्द्र और तत्प
SR No.010161
Book TitleBhagavana Kundakundacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholanath Jain
PublisherMulchand Kisandas Kapadia
Publication Year
Total Pages101
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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