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भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य |
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अध्ययन करके १२ हजार श्लोक प्रमाण इसके तीन खण्डों की 'परिकर्म' नामक बृहद् टीका निर्माण की ।
इन सब साक्षियोंकी उपस्थितिमें चरित्रनायक आचार्य श्री गद्रबाहु श्रुतकेवलीके शिप्य सिद्ध नहीं होते । फिर इन्होंने बोधपाहु में जो कुछ उनको अपना गुरु माननेके विषयमें लिखा है वह केवल परम्परा गुरु मानकर ही भक्तिभावसे कहा है ।
अब संदेह निवारणार्थ यह देखना भी उचित जान पड़ता है कि आचार्यवर भद्रवाह द्वितीयके भी शिष्य सिद्ध होते हैं या नहीं । इस विषय में न तो स्वयं आचार्यवरने ही इन्हें अपना गुरु माना है और न किसी शिलालेख या शास्त्र अथवा अन्य प्रकारसे इसका कोई प्रमाण मिलता है ।
भद्रबाहु द्वितीयका समय वि० सं० ११० तक रहा है, जिसका गणितात्मक विवरण "समय" प्रकरण में स्पष्ट रू से दिया है । फिर वि० सं० २१३ के बाद निर्मित हुये षट्खंडागम महाशास्त्र के टीकाकार आचार्य श्री कुंदकुंद स्वामी एक शताब्दि पूर्व होनेवाले आचार्य भद्रबाहु द्वितीयके शिष्य कैसे माने जासकते हैं ?
परन्तु कुन्दकुन्द जैसे प्रज्ञाप्रधान सिद्धांतवेत्ताको निगुरु मान लेना भी युक्तियुक्त नहीं जान पड़ता । अतः वे किस गुरुके शिष्य थे इसका विशेष अन्वेषण करना आवश्यक है ।
इन आचार्यवरकी रचना प्राभृतत्रयके वृत्तिकार श्री जयसेनाचार्यने वि० [सं० की १४ वीं शताव्दिमें पंचास्तिकायकी टीकाके प्राक् कथनमें इन्हें सिद्धान्तदेव कुमारनन्दिका शिष्य लिखा है, और नन्दिसंघकी न्गुरवाचलिमें प्रथम आचार्य माघनन्दि, उनके बाद जिनचन्द्र और तत्प