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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
शताब्दी के आस-पास की है। श्री नाहटा जी का अनुमान है कि 'यद्यपि यह अपभ्रंग के बहुत निकट-की लगती है, पर शब्द प्रयोग परवर्ती लोक भाषा के यत्र-तत्र पाये जाते हैं। उसे देखते हुए इसका रचनाकाल भी १२ वीं से बाद का १३वीं या १४वीं का होना सम्भव है।" ___ 'पाणंदा' की भाषा के ही आधार पर दोनों विद्वानों ने काल निर्धारण की वेष्टा की है। इसकी भापा 'अपभ्रंश' है, इतना तो निर्विवाद रूप से स्पष्ट है। प्रश्न केवल इतना ही है कि यह किस शताब्दी की भाषा है ? अपभ्रंश का समय प्रायः छठी शताब्दी से १२वीं शताब्दी माना जाता है। छठी शताब्दी संक्रान्ति का युग था, जब भाषा प्राकृत के कोड़ का परित्याग कर देश भाषा का रूप धारण कर रही थी। कारक रूपों और क्रिया रूपों में सरलीकरण की प्रवृत्ति पा रही थी। धातू रूप कम हो रहे थे। इस भाषा में साहित्यिक रचनाएँ भी इसी के आस-पास प्रारम्भ हो गई होंगी। लेकिन इन रचनाओं में प्राकृत रूप अधिक मात्रा म विद्यमान रहता हागा। सातवी-पाठवीं शती की भाषा और अधिक सरल हो गई होगी। बौद्ध सिद्धों की रचनाएँ इसी समय प्रारम्भ हुई होंगी।
'पाणंदा' भापा और भाव दोनों दृष्टियों से ‘परमात्म प्रकाश', 'योगसार', और 'दोहापाहुई' से अद्भुत साम्य रखता है। एक ही प्रकार के विचार, एक ही प्रकार की भाषा में इन ग्रन्थों में गथे गए हैं। आणंदा का कवि कहता है कि परमात्मा-हरि, हर, ब्रह्मा आदि नहीं है तथा वह मन, बुद्धि से लखा भी नहीं जा सकता। शरीर के मध्य उसका प्रावास है, गुरु के प्रसाद से उसकी प्राप्ति हो सकती है :
'हरि हर वंभु वि सिव णही, मणु बुद्धि लक्खि उण जाई। ..
मध्य सरीरहे सो वसइ, आणंदा लीजहिं गुरुहि पसाई ॥१८॥ योगीन्दु मुनि ठीक इमी शब्दावली में कहते है कि परमात्मा का वास शरीर में है तथापि उमको आज भी हरि हर तक नहीं जानते। परम समाधि के तप से उमकी प्राप्ति हो सकती है :
देहि बसंतु वि हरि हर विजं अज विण मुणंति । परम समाहि तवेण विणु सो परमप्पु भणंति ॥४॥
(परमात्मप्रकाश, प्र० महा०, पृ०४६) इसी प्रकार परमात्मा के स्वरूप पर प्रकाश डालते हए अानन्दतिलक कहते हैं कि वह स्पर्शहीन है, रमहीन है, गन्धहीन है, रूपहीन है। उस निर्गुण, निराकार ब्रह्म का दर्शन सद्गुरु की कृपा से होता है :
फरस रस गंध वाहिर उ, रूव बिहूणउ सोई। ' जीव सरीरहं विणु करि आणंदा सद्गुरू जाणई सोई ॥१॥
१. वीर वारसी ( वर्ष ३, अंक १४, १५) पृ० १६७ । २. वीर वाणी (अंक २१) पृ० २८१ ।