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तृतीय अध्याय
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कौन थे? इसका विवरण नहीं दिया है। प्रति में भी गोपाल साह' का नाम कहीं नहीं आया है। रचनाकार:
रचना के कर्ता के साथ ही साथ उसके नाम का प्रश्न मूलझ जाता है। श्री नाहटा जी ने रचयिता का नाम 'महाददे' बताया है और प्रमाण में निम्नलिखित छन्दों को उद्धृत किया है :'आरम्भ-चिदाणंद साणंद जिणु समल सरीर हसो (इ) महाणंदि सो पूजायइ, आणंदा गगन मंडल थिर होइ ।
आणंदा ॥१॥ अन्त-'महाणदि इ इ वालियउ,
आणंदा जिणि दरसाविउ भेउ ||आणंदा १४१।।
........... महारादि देउ।
आणंदा।। जणिउ भणइ महाणंदि देउ । जाणिउणाणहं भेउ।
आणंदा। करिसि........
........"||४२॥ समाप्तः उक्त उद्धरण में 'महाणंदि' शब्द चार बार आया है। नाहटा जी ने इसी आधार पर कर्ता का नाम 'महाणंदि देव' बताया है। एक अन्य छन्द में स्पष्ट रूप से कवि ने अपना नाम 'पानन्दतिलक' बताते हुए कहा है कि उसने इस रचना को 'हिंदोला छन्द' में पूर्ण किया :
हिन्दोला छंदि गाइयई आणदि तिलकु जिणाउ ।
महाणंदि दश्वालियर, आणंदा अवहउ सिवपुरि जाउ ॥४२॥ लेकिन रचना के अन्तिम छन्द में 'भणइ महापाणंदि' भी पाया है। 'दसद गुरू चारणि जउ हउ भणइ महाआणंदि।
....... ॥४॥ अतएव ऐसा प्रतीत होता है कि रचनाकार अपने नाम का प्रयोग दो प्रकार से करता था अथवा उसके दो नाम थे-'अानन्दतिलक' और 'महानन्द देव।' बहुत सम्भव है उसने अपने नाम के ही अनुरूप रचना का नाम 'पाणंदा' रखा हो और इसीलिए इस शब्द को प्रत्येक छन्द में जोड़ दिया हो। रचना काल और विषय :
___ इस ग्रन्थ की रचना कब हुई ? यह भी अज्ञात है और विद्वानों के अनुमान का विषय बन गई है। श्री कासलीवाल जी के अनुसार 'रचना अवश्य बारहवीं
१. श्रामेर शास्त्र भाण्डार ( जयपुर ) की हस्तलिखित प्रति से ।