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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
ऐसा प्रतीत होता है कि हेमचन्द्र ने आठवीं शताब्दी से बारहवीं शताब्दी तक की अपभ्रंश पर विचार किया है । अतएव यह निष्कर्ष निकलता है कि योगोन्दु मुनि ईसा की आठवीं शताब्दी के अन्त अथवा नवीं शती के प्रारम्भ में हुए होंग
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डा० हरिवंश कोछड ने भी योगीन्दु का समय आठवीं नवीं शताब्दी माना है। उन्होंने डा० उपाध्ये के मत का खण्डन करते हुए लिखा है कि 'चंड के प्राकृत लक्षण में परमात्मप्रकाश का एक दोहा उद्धृत किया हुआ मिलता है। जिसके आधार पर डा० उपाध्ये योगीन्द्र का समय चण्ड से पूर्व ईसा की छठी शताब्दी मानते हैं । किन्तु सम्भव है कि वह दोहा दोनों ने किसी तीसरे स्रोत से लिया हो। इसलिए इस युक्ति से हम किसी निश्चित मत पर नहीं पहुंच सकते । भाषा के विचार से योगीन्द्र का समय आठवीं शताब्दी के लगभग प्रतीत होता है। "
ग्रन्थ :
योगीन्दु के नामकरण और प्राविर्भाव के समान, उनके ग्रन्थों के सम्बन्ध में भी काफी विवाद है। श्री ए० एन० उपाध्ये ने ऐसे नौ ग्रन्थों की सूची दी है जो योगीन्दु के नाम से अभिहित किए गए हैं । वे ग्रन्थ हैं - ( १ ) परमात्मप्रकाश, (२) योगसार, (३) नौकार श्रावकाचार, (४) अध्यात्म सन्दोह, (५) सुभाषित तन्त्र, (६) तत्वार्थं टीका, (७) दोहापाहुड़, (८) अमृताशीति, ( ९ ) निजात्माष्टक | इनमें से नं० ४, ५, और ६ के विषय में विशेष विवरण नहीं मिलता । 'अमृताशीति' एक उपदेश प्रधान रचना है । अन्तिम पद में योगीन्द्र शब्द आया है। यह रचना योगीन्दु मुनि की है, इसका कोई निश्चित
परम० प्र० :
पह णायकु वसिकरहु जेण होंति वसि अण्ण |
नृल विणट्टइ तरुवरई श्रवमहं सुक्कहिं पराण ॥ १४० ॥ हेम० व्याकरण :
जिभिन्दिउ नायगु वसि करहु जमु अधिन्नइ अन्नई । मूलि विहतुं विणिहे अबसें मुक्कई पण्णई ||
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परम० प्र० :
बलि किउ माणुस जम्मडा देवखन्तहं पर सारु । जर उठ्ठभर तो कुहर ग्रह उज्झइ तो छरु ॥ १४७ ॥
हेम० व्याकरण :
आयो दट्ठू कलेवरहो जं जइ उदृग्भइ तो कुहर ग्रह
१. डा० हरिवंश कोछड, अपभ्रंश
वाहिउ तं सारु | डज्झर तो छारु ॥
माहित्य - भारतीय साहित्य मन्दिर,
दिल्ली, पृ०६८ |
२. देखिए - परमात्मप्रकाश की भूमिका, पृ० ११२ ।