________________
२६०
अन्तिम
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
अरे पढत सुणत मन उल्हसइ, जई हिंडइ रुचि होई । कर्म्म काटि मुकतिह वरई,
जनमन बिछडइ सोई ॥ मन० १९ ॥ भीमसेणि टोडउ मल्लउ,
जिन चैत्यालय आइ रे । ब्रह्मदीप रासौ रचो,
भवियहु हिए समाइ || मन० २० ॥ इति मनकरहा समाप्त
पद ( राग विहानडौ )'
औधू सो जोगी मोहि भावै, सुध निरंजन घ्यावे ॥ सीडंड सुरतर समाधि करि, जीव जन्त न सतावै । ध्यान अगनि वैराग्य पवन करि, इंधण करम जरावै ॥ मन करि गुफ्त गुफा प्रवेश करि, समकित सींगी बावै । पंच महाव्रत भसम साधि करि, संजम जटा धरावे ॥ औ० ॥ २ ॥ ग्यान कछोटा दो कर खप्पर, दया धारणा धावै ।
० ॥ १ ॥
सुमति गुपति मुद्रा अनुपम, सिवपुर भिख्या लावे || श्रधू०|| ३ || आप ही आप लखे घट भीतरि, गुरु सिख कौन कहावै ।
कहै ब्रह्मदीप सजन समझाई, करि जोति में जोति मिलावै ॥ औधू ० ॥४॥
पद ( राग गौड़ी )
सोहं हंसा गगन समान ।
गगन सुन्न हंसा ग्यान प्रवान ॥
आदि न अन्त रूप नहि रेषा ।
जोगी न जतिय दिगंबर भेषा ॥ सोहं० ॥ १ ॥ सरवर एक भरौ नहिं भीजै ।
सरबि घटै पानी न ढहीजै ॥ सोहं० ॥२॥ घटि उमड़े जल दह दिस जाइ ।
घट विघटै जल गगन समाइ || सोहं० || ३ || एक लौ आवै एक लौ जाइ ।
ब्रह्मदीप राखहु लिवलाइ || सोहं० ॥ ॥४॥
१. श्रमेर शास्त्र भांडार, जयपुर में सुरक्षित प्रति से ।
२.
पं० लूणकरण जी पांडया मंदिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति से ।