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ब्रह्मदीप
श्री वीतरागाय नमः
मन करहा भव बनि मा चरइ,
तदि विष बेल्लरी बहुत। तह चरंतहं बहु दुव पाइयउ,
तब जानहि गो मीत मन०१॥ अरे पंच पयारिइ तूं रुलिउ,
नरय निगोद मझारी रे। तिरिय तनै दुख ते सहै,
नर सुर जोनि मझारी रे॥मन०२॥ लख बावन जोनी लहै,
थावर गतिहि मझारी रे। छह लखइ" लेन सिउ,
__ अजह न तिजइ बिसारी रे ॥मन० ३॥ अरे लख बारह जोनी फिरइ,
नर सुर जोनि मझारी रे। चउदह मणु वत णेह सिह,
अजहुँ न समुझइ सोइ रे ॥मन०४॥ अरे दोइ सहस सायर बसिउ,
वरु कायहं मझारी रे । मुकति तणा फलु न लहिउ,
फिरि थावरहं मझारी रे ॥मन० ॥ कर्म असंख्याते गए,
तव वे इन्द्रो होई रे। ते इन्द्री दुर्लभ भई,
इउ भव हीडउ सोई रे ॥मन० ७॥
१. 'आमेर शास्त्र भांडार, जयपुर में मुरक्षित प्रति से ।