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चैतन
दोहा परमार्थ'
रूपचन्द
अपनी पद न बिचारहु, अहो जगत के राइ । भव बन छाइ कहा रहे, सित्रपुर सुधि विसराई ॥१॥ भव बन बसत ग्रहो तुम्हे, बीते काल अनादि । अब किन घरहि संभारहु, कत दुख देखत बादि ॥२॥ परम अतेन्द्र सुख सुनी, तुमहि गयो सु भुलाइ । किंचित इन्द्री सुख लगे, विषयन रहे लुभाइ || ३॥ विषयन सेवत हउ भले, तृष्णा तउ न बुझाइ । जिम जल खारा पीवतइ, बाढ़इ तिस अधिकाइ ||४|| विषयन सेवत दुख भलई, सुख तुम्हारइ जानु । अस्थि चवत निज रुधिर ते, ज्यउ सचु मानत स्वान ॥७॥ विषयन सेवत दुख बढ़इ, दुखहु किन जिय जोइ । खाज खुजावत ही भला पुनि दुख दूनउ होइ ॥ ९ ॥ लागत विषय सुहावने, करत जु तिन महि केल । चाहत हउ तुम कुसल ज्यउं, वालक फनि स्यउ खेल ||१४|| चेतन सहज सुख ही बिना, इहु तृष्णा न बुझाइ । सहज सलिल बिन कहउ क्यउ, उसन प्यास बुझाइ ॥ ३० ॥ चेतन तुमहि कहा भयउ घर छाड़े बेहाल | संग पराए फिरत हउ, विषय सुखन कइ ख्याल ॥ ३१॥ सिव छंडे भव मंडहू, यहव तुम्हारउ ज्ञान । राज तज भिख्या भमइ, सो तुम कियउ कहान ॥ ३५ ॥ तन की संगति जरत हउ, चेतन दुःख अरु दाप । भाजन संग सलिलउ तपइ, ज्यउं पावक श्राताप ॥ ३९ ॥ खीर नीर ज्यंं मिलि रहे, कउन कहइ तनु अउरु । तुम चेतन समझत नहीं, होत मिले मै चउरु ||४०|| स्वपर विवेक नहीं तुम्हइ, परस्यउ कहत जु अप्पु । चेतन मति विभ्रम भए, रजु विषइ ज्यउ सप्पु ॥ ४९ ॥
१. श्री बधीचन्द मन्दिर, जयपुर के शास्त्र भांडार में सुरक्षित प्रति से ।