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स्फुट पद
रूपचन्द
चेतन चेति चतुर सुजान ।
कहा रंग रच रह्यौ पर सौ, प्रीति करि प्रति वान ॥ १ ॥ ० ॥ तुं महन्तु त्रिलोकपति, जिय जान गुन परधान ।
यह चेतन हीन पुदगलु, नाहिं न तोहि समान || २ || चे० ॥ होय रह्यौ असमरथु अप्पु न, परु कियो पजवान । निज सहज सुख छोडि परबस, पर्यो है किहि जान ||३||चे० ॥ रह्यौ मोहि जुमूद यामे, कहा जानि गुमान । रूपचन्द चित्त चेति पर, अपनौं न होइ निदान || ४ | | ० ||
पद
औरन सो रंग न्यारा न्यारा, तुम सूं रंग करारा है ।
तू मन मोहन नाथ हमारा, अब तो प्रीति तुम्हारा है || १ ||औ० ॥ जोगी हुवा कान फंडाया, मोटी मुद्रा डारी है ।
गोरख कहै त्रसना नहीं मारी, धरि घरि तुम ची न्यारी है ॥२॥ ० ॥
जग मे श्रावै बाजा बजावै, आछी तान मिलावे है ।
सबका राम सरीखा जान्या, काहे को जती हुआ इन्द्री नहीं जीती, जीव अजीव को समझा नाहीं, वेद पढ़ें अरु बराभन कहावै, आत्म तत्व का अरथ न समज्या, पोथी मा जनम गुमाया है ||५|| औ०|| जंगल जावै भस्म चढ़ावे, जटा व घारी कैसा है । परभव की आसा नहि मारी, फिर जैसा का तैसा है || ६ || ओ० ॥ काजी किताब को खोल के बैठे, क्या किताब में देख्या है।
बकरी की तो दया न आनी, क्या देवैगा लेखा है || ७! | ओ० || जिन कंचन का महल बनाया, उनमें पीतल कैसा है । डरे गरे में हार हीरे के सब जुग का जी कहता है ||८|| ओ० ॥ रूपचन्द रंग मगन भया है, नेम निरंजन प्यारा है । जनम मरण का डर नहीं, वाकु चरना सरन हमारा है ॥ ९ ॥ श्र० ॥
भेष लजावै है || ३ || ओ० || पंच भूत नहिं मार्या है । भेष लैइ करि हार्या है ||४|| औ० ॥ बरम दस नहीं पाया है।
१. श्रमय जैन ग्रंथालय, बीकानेर की प्रति से । २. छाबड़ों का मन्दिर, जयपुर में सुरक्षित प्रति से ।