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द्वितीय अध्याय
तो निर्विवाद रूप से स्वीकृत है कि जैनमत प्रारम्भ से परमात्म-तत्व में विश्वास करता है। इस सिद्धान्त के अनुसार सामान्यतः आत्मा नाना प्रकार के 'अजीव' पदार्थों से ग्रस्त रहता है, जिसे पारिभाषिक शब्दावली में 'पुदगल' कहते हैं। आत्मप्रदेश पर पुदगल के आगमन से प्रात्मा नाना प्रकार के राग-द्वेष-मोहादि में फंस जाता है। इसी मिथ्यात्व को 'पासव' कहते हैं। इनका निरोध ही 'संवर' कहलाता है। संवर 'निर्जरा' का, अनुक्रम से मोक्ष का कारण होता है। जब प्रात्मा स्वयं या गुरू उपदेश से आत्मा-अनात्मा का भेद या स्वभाव-विभाव की पहचान करने लगता है, अर्थात् जब उसमें स्व-पर का विवेक जाग्रत हो जाता है, उसे सम्यक ज्ञानी कहा जाता है। इस सम्यक ज्ञान की प्राप्ति ही परमात्मा' का विशेष लक्षण अथवा अंग है। इस प्रकार 'आत्मा' कर्म कलंक से मुक्त होकर उस अखंड और असीम आनन्द लोक में विचरण करता हा अध्यात्म सूख का अनुभव करता है. जो वर्णनातीत है, अनिर्वचनीय है। छठी शताब्दी तक आते-आते जैनाचार्यों की वर्णन शैली और वस्तुस्थापन बौली में बड़ी उदारता एवं व्यापकता दिखाई पड़ने लगती है। पूर्वकालीन एवं समकालीन पावंडियों का विरोध, कर्मकांड की बहुलता की निस्सारता पर जोर, समरमी भाव एवं स्वसवेद्य ज्ञान में निष्ठा, इस यूग की जैन रचनाओं में उसी प्रकार से देखे जा सकते है, जैसे कि उस समय के अन्य योगियों और तांत्रिकों में। बहत सम्भव है कि इस दिशा में वे तांत्रिकों से प्रभावित हुए भी हों, जिसे कि बहुत से विद्वानों ने स्वीकार भी किया है। "विक्रम की छठी शताब्दी के बाद भारतीय धर्म साधना में एक नई प्रवत्ति का उदय होता है। इस समय से भारतीय धर्म साधना के क्षेत्र में उस नए प्रभाव का प्रमाण मिलने लगता है, जिसे संक्षेप में तांत्रिक प्रभाव कह सकते हैं। केवल ब्राह्मण ही नहीं, जैन और बौद्ध सम्प्रदायों में भी यह प्रभाव स्पष्ट रूप से लक्षित होता है।" हाँ, यह अवश्य सत्य है कि इस साधना में तांत्रिकों के समान 'पंच मकार' नहीं आने पाए, स्त्री को साधना का केन्द्र विन्दु नहीं माना गया और उस प्रकार की वासनोद्दीपक और वीभत्स क्रियाएँ भी सम्मिलित नहीं होने पाई, जो छद्म वेप में कामूकों की परितप्ति का साधन बनतीं। किन्तु यही सब रहस्यवाद नहीं है और न रहस्यवाद को इन्हीं सीमानों में बन्दी बना देना उपयुक्त ही। रहस्यवाद का तात्पर्य
वस्तुत: अध्यात्म की चरम सीमा ही रहस्यवाद की जननी है। यह एक ऐसी अनुभूति है, जो साधक के अन्तस् में जाग्रत होकर अखिल विश्व को उसके लिए ब्रह्ममय कर देती है अथवा उसे स्वयं ब्रह्म ही बना देती है। बुद्धि का ज्ञेय ही हृदय का प्रेय बन जाता है। समस्त प्राणियों में उसे परमात्मा का आभास होने लगता है अथवा समस्त प्राणी ही परमात्मा बन जाते हैं। वह मन की एक ऐसी
१. प्राचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी-मध्य कालीन धर्म साधना, पृष्ठ ६ । २. Radhakamal Mukerjee-Introduction to Theory and art of
Mysticism, Page 7.
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