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एकादश अध्याय
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लाने पर जोर दिया है। द्यानतराय जी का तो कहना है कि सदैव ही श्वासोच्छवास के साथ 'सोहं सोहं का ध्वनन् होता रहता है। यह 'सोह' तीन लोक में सार है। इस 'सोह' के अर्थ को समझकर, जो लोग 'अजपा जाप' की साधना करते हैं, वे श्रेष्ठ हैं :
सोहं सोहं होत नित, सांस उसास मझार । ताको अरथ विचारियै, तीन लोक में सार ।। तीन लोक में सार, धार सिव खेन निवासी। अष्ट कर्म सौ रहित, सहित गुण अष्ट विलासी।। जैसो तैसो आप, थाप निहचै तजि सोह। अजपा जाप संभार, सार सुख सोहं सोहं | ७||
धम बनाम, पृ०६५) मुनि रामसिंह के ही समान संत आनन्दप्रन ने भी कहा कि जो व्यक्ति आशाओं का हनन करके अंतर में अजपा जाप को जगाते हैं, वे चेतन मूत्ति निरंजन का साक्षात्कार करते हैं।' इस अजपा की अनहद ध्वनि उदान्न होने पर आनन्द के मेघ की झड़ी लग जाती है और जीवान्मा सौभाग्यवनो नारी के मदम भाव विभोर हो उठती है। इसीलिए संत आनन्दघन भी 'सोह' को संसार का सार तत्व मानते हैं :
चेतन ऐसा ज्ञान विचारो। सोहं सोहं सोहं सोहं सोहं अणु नबी या सारो ||
(आनन्दघन बहोत्तर, पृ० ३६५)
निरंजन
'निरंजन' शब्द का इतिहास बड़ा ही मनोरंजक है। इसका प्रयोग परब्रह्म, यम, बुद्ध, परमपद, मन, कानपुष्प, शैतान, दोषी. पापण्डी और महाठग आदि अनेक अर्थों में हुआ है। मामान्यत: निरंजन' का अर्थ है-अंजन अर्थात् माया रहित । मुण्डकोपनिषद् ( ३।३ ) में कहा गया है-'तदा विद्वान् पुण्य पापे विध्य निरंजन: परमं साम्यमुपैति ।' आठवीं शताब्दी के बाद से 'निरंजन' शब्द व्यापक होने लगा और नाथ योगियों के समान एक 'निरंजन मत' ही चल पड़ा। जिस प्रकार नाथ सम्प्रदाय में 'नाथ' को परमात्मा से
१. प्रासा मारि श्रासन धरि घट में, अजपा जाप जगावै। आनंदघन चेतनमय मूरति, न य निरंजन पावै ॥७॥
(आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ३५६) २. उपजी धुनि अजपा की अनहद, जीत नगारेवारी। झड़ी सदा आनंदघन बरखत, बन मोर एकनतारी ॥२०॥
(आनंदघन बहोत्तरी, पृ० ३६५)