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एकादश अध्याय
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जोर दिया है। इस ‘एवं' के उच्चारण की आवश्यकता नहीं होती। साधना के आरम्भ में इसका ध्यान कर लेना चाहिए, तब यह स्वत: विमोचन के साथ ध्वनित होता रहता है। 'एवं' शब्द में 'ए' बुद्ध का और 'वं उनकी शक्ति का परिचायक माना गया है।
योगियों का अजपा:
___नाथ योगियों में भी अजपा की चर्चा मिलती है। इन योगियों ने हठयोग की साधना के साथ 'सोहं' के ध्यान की बात कही है। गोरखनाथ का कहना है कि 'इस प्रकार मन लगाकर जाप जपो कि 'सोहं सोह' का उच्चारण वाणी के बिना भी होने लगे। दृढ़ आसन पर बैठकर ध्यान करो और रात दिन ब्रह्म ज्ञान का चिन्तन करो।'' महादेव जी ऐसे योगी की पद वंदना करते हैं, जो अजपा जाप करता है, शून्य में मन को स्थिर करता है, पंचेन्द्रियों का निग्रह करता है और ब्रह्माग्नि में काया का होम करता है। जलंधरी पाव जी का विश्वास है कि अजपा जाप करने वाला योगी समस्त पापों का प्रहार करता है।'
संत कवियों में अजपा:
हिन्दी संत कवियों ने सुमिरन को विशेष महत्व दिया है। उनकी दष्टि में नाम स्मरण ब्रह्म दर्शन का सर्वोत्तम उपाय है। लेकिन स्मरण में किसी बाह्य साधना की आवश्यकता नहीं । सुमिरन तो ऐसा होना चाहिए कि तन मन में इष्ट स्वत: गुंजरित होने लगे। कबीर ने ऐसे ही 'सुमिरन' को जगत का सार कहा है। मन से जब ऐसा सुमिरन होने लगता है तब किसी अन्य देवता के समक्ष शीश झकाने की आवश्यकता नहीं रह जाती। दादू नाम लेने की सार्थकता इसी में समझते हैं कि नाम ही तन-मन में समा रहे और मन उसमें ऐसा एकरस हो जाय कि फिर एक क्षण भी नाम का विस्मरण न हो। रज्जब का कहना है कि
१. डा. पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल-गोरखबानी, पद ३०, पृ० १२४ । २. अजपा जपै सुंनि मन धरै।
पांचं इन्द्री निग्रह करै ।। ब्रह्म अगिन मै होमै काया । तास महादेव बंदै पाया ॥६॥
(नाथ सिद्धों की बानियाँ, पृ० ११५) ३. देखिए-नाथ सिद्धों की बानियाँ ( जलंध्री राव जी की सबदी), पृ. ५४ ।
मेरा मन सुमिरै राम कुँ, मेरा मन रामहिं आदि । अब मन रामहिं है रहा, शीश नवावौं काहि ।।
(कबीर ग्रंथावली, पृ०५) ५. संत सुधा सार (खण्ड १), पृ०४५५ ।