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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद नाम लेना 'सुमिरन' ही है, माला लेकर जप करना भी 'सुमिरन' हो सकता है। डा० पीताम्बर दत्त बड़थ्वाल ने संतों में सुमिरन तीन प्रकार का माना है :
(१) जाप-जो कि बाह्य क्रिया होती है। (२) अजपा जाप-जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग
कर आभ्यांतरिक जीवन में प्रवेश करता है। ... (३) अनाहद-जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गूढ़तम अंश में
प्रवेश करता है, जहाँ पर अपने आप की पहचान के सहारे वह सभी
स्थितियों को पार कर अंत में कारणातीत हो जाता है। संत सुन्दरदास ने 'सर्वांग योग प्रदीपिका में 'सुमिरन' के उक्त तीन भेदों का दूसरे शब्दों में उल्लेख किया है। उनके अनुसार जप तीन प्रकार के होते हैं :
(१) वाचिक-जो दूसरे को प्रतिश्रुत हो । (२) उपांशु-जो केवल साधक को सुनाई दे ।
(३) मानस-जो साधक को भी न सुनाई दे । अजपा जाप :
इनमें से 'अजपा जाप' की विशेष महिमा रही है। सिद्धों. नाथों, जैन कवियों और संत कवियों सभी ने इसको अपनाने पर जोर दिया है। इनका विश्वास था कि बाह्य जप से या माला फेरने से सच्चा सुमिरन नहीं हो सकता। इससे दिखावे की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलता है। अतएव सभी साधकों ने अन्य बाह्य अनुष्ठानों के साथ 'माला जप' की भी निन्दा की है और 'अजपा जाप' को महत्व दिया है। 'अजपा जाप' में मंत्र के उच्चारण की आवश्यकता नहीं रह जाती, अपितु मंत्र या जप स्वतः उच्चरित होने लगता है। साधक के शरीर के अंग अंग से नाम ध्वनि निकलने लगती है। इसीलिए कबीर ने कहा था कि उनको अब मुख से राम नाम जपने की आवश्यकता नहीं रह गई है, क्योंकि उनके रोम-रोम से 'राम' शब्द प्रतिध्वनित हो रहा है। डा० बड़थ्वाल ने लिखा है कि "इसके (अजपाजाप) द्वारा स्वयं आत्मा उबुद्ध हो जाती है और भीतरी ईश्वरीय भावना के समक्ष अपने आपको प्रत्यक्ष एवं अबाधित रूप से समर्पित कर देती है।"
सिद्धों का सहज जप:
सिद्धों की साधना में 'अजपाजाप' का वर्णन आता है, लेकिन उन्होंने इसको 'वज्रजप' अथवा 'सहज जप' कहा है। उन्होंने 'एवं' शब्द के सुमिरन पर
१. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ० २२५ । २. देखिए-डा. त्रिलोको नारायण दीक्षित-सुन्दर दर्शन, पृ० १३५ । ३. हिन्दी काव्य में निर्गुण सम्प्रदाय, पृ० २२३ ।