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दशम अध्याय
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पर पहुंचते हैं। वे कहते हैं 'तेरी' ( ब्रह्म की ) निसानी कैसे बताऊँ ? तेरा रूप वाणी से अगोचर है। अरूप तत्व को रूप की सीमा में कैसे बाँधा जा सकता है ? तुम्हें 'रूपारूपी' (रूप और अरूप ) दोनों कहना भी संगत नहीं होगा । यदि सिद्ध सनातन तत्व कहूं, तो उपजता विनसता कौन है ? और यदि उत्पन्न होने वाला तथा विनाशकारी कहूं, तो नित्य और शाश्वत कौन है ? वस्तुतः तुम अनुभव के विषय हो, कथन श्रवण की सीमा के परे । "
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माया :
यह शब्दातीत गुणातीत और अनुभव परमतत्व ही कबीर और सन्त आनन्दघन दोनों का आस्य है। इसके लिए किसी बखेड़े की जरूरत नहीं, वेद, कुरान के प्रमाण की आवश्यकता नहीं ओर हिन्दू या मुसलमान धर्म की बाह्य संकीर्णता में फँसना श्रेयस्कर नहीं। इस मार्ग के पथिक के लिए चित्त की शुद्धि और मन तथा इन्द्रियों का नियन्त्रण ही परम काम्य है तथा जागतिक प्रपंचों से अनासक्त होने की आवश्यकता क्योंकि माया या अविद्या ही भ्रम का कारण है । माया के वश में होकर ही जीव संसार में भ्रमण करता रहता है । माया के पाश को छिन्न करके योगी मुक्त होते हैं या मोक्ष प्राप्त करते हैं । इसीलिए कबीरदास ने बार बार माया से बचने का उपदेश दिया है । उसे चाण्डालिनि, डोमिनि और सांपिन आदि कहा है । उसी के प्रभाव से ब्रह्मा, विष्णु और महेश च्युत हुए हैं, नारद और श्रृङ्गी महर्षि भी पथ भ्रष्ट हुए हैं । माया ने न जाने कितने मुनिवरों, पीरों, वेदान्ती ब्राह्मणों एवं शाक्तों का शिकार किया है। उसने अपने नागपाश से पूरे विश्व को बाँध रक्खा है। सन्त आनन्दघन भी माया को कबीर के समान ही ठगिनी मानते हैं और उससे सावधान रहने का उपदेश देते हैं। उनके ऐसे एक पद पर कबीर का पूरा प्रभाव ही नहीं है, अपितु उसकी सात पक्तियाँ, एक दो शब्दों के हेर-फेर के साथ कबीर के पद से ही लेली गयी हैं । पद इस प्रकार है :
१. निसानी कहा बताऊँ रे, तेरो वचन श्रगीवर रूप । रूपी कहूँ तो कछू नाहीं रे, कैसे बँधै अरूप । रूपारूपी जो कहूँ प्यारे, ऐसे न सिद्ध अनूप । सिद्ध सरूपी जो कहूँ रे, बन्धन मोक्ष विचार ।।
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सिद्ध सनातन जो कहूँ रे, उपजै चिसै जो कहूँ प्यारे,
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उपजै बिणसे कौण | नित्य अबाधित गौन ॥ २१ ॥
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( श्रानन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३६५-६६ )
२. कबीर ग्रन्थावली, पृ० १५१, पद १८७ ।