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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद और कभी वंशीवाले से दिल लगने की कहानी कहते हैं ( पद ५३ ) । किन्तु इसका तात्पर्य उनके द्वारा अवतारवाद का समर्थन नहीं हो जाता। वस्तुतः उनका मत है कि 'ब्रह्म' एक है, उसे राम कहो या रहमान, कृष्ण कहो या महादेव, पार्श्वनाथ कहो या ब्रह्मा। जिस प्रकार एक मृत्तिका पिण्ड से नाना प्रकार के पात्र बनते हैं, उसी प्रकार एक अखण्ड तत्व में अनेक भेदों की कल्पना का मारोप कर लिया जाता है। वास्तव में जो निज पद में रम रहा है वही 'राम' है, जो रहम करता है वह 'रहमान' है, जो कर्मों को मिटाता है वह 'कृष्ण' है, जो निर्वाण प्राप्ति में साधक है वही 'महादेव' है जो ब्रह्म रूप का स्पर्श करता है वही 'पारसनाथ' है और जो ब्रह्म को जानता है वही ब्रह्म है। यही है कर्मों से अलिप्त चेतनमय परमतत्व के स्वरूप की झाँकी ।' अनिर्वचनीयता:
वास्तविकता यह है कि ब्रह्म का कोई एक निश्चित नाम नहीं है, उसका कोई निश्चित स्वरूप भी नहीं है। साधक किसी विधि से उसके नाम रूप का परिचय देना चाहता है। इसीलिए सभी सम्भव नामों का प्रयोग करता है। लेकिन अन्त में वह भी ब्रह्म की अनन्तता और उसके स्वरूप की अनिर्वचनीयता को स्वीकार कर लेता है और साफ-साफ कह देता है कि वह अनुभव का विषय है, वाणी की शक्ति के परे है। कबीरदास इसीलिए उसे 'गूंगे का गुड़' कहते हैं, क्योंकि उसका वर्णन कैसे किया जाय ? जो दिखाई पड़ता है, वह ब्रह्म है नहीं और वह जैसा है, उसका वर्णन सम्भव नहीं, क्योंकि वह न दृष्टि में आ सकता है न मुष्टि में । सन्त आनन्दघन भी अन्त में इसी निष्कर्ष
१. राम कहो रहमान कहो कोउ, कान कहो महादेव री।
पारसनाथ कहो कोउ ब्रह्मा, सकल ब्रह्म स्वयमेव री। भाजन भेद कहावत नाना, एक मृत्तिका रूप री। तैसे खण्ड कल्पना रोपित, आप अखण्ड सरूप री। निज पद रमे राम सो कहिए, महादेव निर्वाण री। करसे करम कान सो कहिए, महादेव निर्वाण री। परसे रूप पारस सो कहिए, ब्रह्म चिन्हे सो ब्रह्म री। इह विध साधो श्राप अानन्दघन, चेतनमय निःकर्म री ॥६७॥
(आनन्दघन बहोत्तरी, पृ० ३८८) २. बाबा अगम अगोचर कैसा, ताते कहि समुझावों ऐसा ।
जो दीसे सो तो है वो नाही, है सो कहा न जाई । सैना बैना कहि समुझाओं, गूंगे का गुड़ भाई । दृष्टि न दीसै मुष्टि न आवै, बिनसै नाहि नियारा। ऐसा ग्यान कथा गुरु मेरे, पण्डित करो विचारा ।।
(कवीर, पृ० १२६).