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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद गई। 'वज्र' शब्द के भी अनेक प्रकार से अर्थ प्रस्तुत किए जाने लगे। यदि किसी ने वज्र शब्द का अर्थ 'हीरा' बताकर उसे अप्रवेश्य, अच्छेद्य, अदाह्य तथा अविनाश्य वस्तुओं का प्रतीक बताया तो अन्य नें वज्र को इन्द्रास्त्र कहा । लेकिन 'वज्र' का सर्वाधिक प्रचलित अर्थ हुआ 'पुंसेन्द्रिय'। कहा गया कि स्त्रीन्द्रिय पद्मस्वरूप है और पुरुषेन्द्रिय वज्र का प्रतीक है-'स्त्रीन्द्रियाँ यथा पद्म बज्र पुंसेन्द्रियं तथा' (ज्ञानसिद्धि)। इसे ही क्रमशः प्रज्ञा और उपाय की संज्ञा भी दी गई और प्रज्ञा उपाय की युगनद्ध दशा को महासुख और समरसता की अवस्था बताया गया। इसे शक्ति-शिव के मिलन या 'सामरस्य भाव' के समकक्ष ही घोषित किया गया। फलतः मद्य, मन्त्र, हठयोग और स्त्री वज्रयान के मूल आधार बन गए। स्त्री को मुद्रा या महामुद्रा बताया गया और इसके बिना साधना की पूर्ति असम्भव घोषित कर दी गई। मुद्रा के लिए भी डोमिनि या चांडालिनि कन्या को प्राथमिकता दी गई। वैसे अपनी ही पुत्री, भगिनी या माता भी वर्ण्य नहीं मानी गई। इस प्रकार वज्रयान के द्वारा अनाचार और व्यभिचार को प्रश्रय ही नहीं मिला, अपितु पूरे समाज पर इसका दुष्प्रभाव पड़ा।
वज्रयान और सहजयान :
वज्रयान का समय प्रायः विद्वानों ने सातवीं शतब्दी के बाद से बारहवीं शताब्दी तक माना है। लेकिन वज्रयान और सहजयान में क्या सम्बन्ध है ? इस पर मतभेद है। कुछ लोग दोनों शब्दों को एक ही सम्प्रदाय का पर्यायवाची मानने हैं तो अन्य दोनों को भिन्न-भिन्न सम्प्रदाय सिद्ध करने की चेष्टा करते हैं। सहजयान और वज्रयान के सम्बन्ध में विवाद होने के कारण ही ८४ सिद्ध किसी के द्वारा वज्रयानो बताए जाते हैं तो अन्य उन्हें 'सहजिया सिद्ध' कहते हैं। एक विचित्र बात यह भी है कि वज्रयान और सहजयान दोनों का आरम्भ काल ईसा को आठवीं शताब्दी ही माना जाता है। महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने लुईपाद को सहजिया सम्प्रदाय का प्रवर्तक माना है और डा० दासगुप्त ने सहजयान को वज्रयान का एक उपयान माना है। डा० विंटरनित्स के अनुसार
१. वज्रयान के एक प्राचार्य अनंगवन ने अपने ग्रंथ 'प्रज्ञोपायविनिश्चय
सिद्धि' में लिखा है :प्रज्ञापारमिता सेव्यासर्वथा मुक्ति-काक्षिभिः ।।२२।। ललनारूपमास्थाय सर्वत्रैव व्यवस्थिता ।।२३।। ब्राह्मणादि कुलोत्पन्नां मुद्रां वै अन्त्यजोद्भवाम् ।।२४।। जनयित्री स्वसारं च स्वपुत्री भागिनेयिकाम् ।
कामयन् तत्वयोगेन लघु सिध्येद्धि साधकः ।।२५।। (पृ० २२-२३) २. बौद्धगान ओ दोहा-पदकर्तादेर परिचय, पृ० २१ ।
Dr. Shashi bhushan Das Gupta-An Introduction to Tantric Buddhism, p. 77.