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श्रष्टम अध्याय
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मन्त्रयान
तन्त्र के इस स्वरूप को न समझने के कारण कुछ लोगों ने उसे काले जादू का क्रमहीन मिश्रण', कुछ ने 'वासनाजन्य और अन्य ने 'अर्थहीन स्वांग' तथा 'पाषड का पोषक बताया। यही नहीं तन्त्राचार में पंचतत्व या पंचमकार की प्राचीनता देखकर कतिपय लोगों ने तन्त्र और परवर्ती वामाचार को पर्यायवाची समझकर उसे वासना एवं पारनाका प्रसार करने वाला कहा। लेकिन सर जान वुडरक ने इन आलोचना की असत्यता का बड़े सुन्दर ढंग से अनावरण किया है।'
एवं
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इससे स्पष्ट है कि महायान सम्प्रदाय तन्त्र साधना से प्रभावित भले ही हुआ हो और तन्त्रों-मन्द्रों के आविष्कार में उसने प्रेरणा भी हो जिन रूप में यह वज्रयान तक विकसित हुआ उसके बीज स्वयं महायान सम्प्रदाय में ही छिने हुए थे । हम पहले ही कह चुके हैं कि पुवादियों के द्वारा जब बुद्ध को देव रूप में प्रतिष्ठा दो गई तथा मैथुन को भी विशेष परिस्थित में स्वीकार्य बताया गया तो इसका व्यापक प्रभाव पड़ा। बुद्ध के निर्वाण को जितना ही समय बीतता गया, उनके सम्बन्ध में अलौकिक और विचित्र कहानियों की संख्या उतनी ही बढ़ती गई। धीरे-धीरे उनका पाठ करना भी फलदायक समझा जाने लगा । लेकिन लम्बे पाठों का प्रतिदिन जाप करना कठिन था। प्रतएव सरलीकरण और संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति ने प्रवेश पाया। छोटे छोटे सूत्र, धारणी ओर मंत्र बनने लगे । "लम्बे लम्बे सूत्रों के पाठ में विलम्ब देखकर कुछ पक्तियों को छोटो छोटो घारणियाँ बनाई गई अन्त में दूसरे लोग पैदा हुए, जिन्होंने लम्बी धारणियों को रटने में तकलीफ उठाती जनता पर अपार कृपा करते हुए 'श्री मुने मुने महामुने स्वाहा,' 'ओं आ हूं' आदि मन्त्रों को सृष्टि की। इस प्रकार अक्षरों का महत्व बढ़ चला । मन्त्रों के इसी निर्माण और प्रचार युग को 'मन्त्रयान' कहा जाता है ।
वज्रयान :
मन्त्रयान का समय चौथी शताब्दी से सातवीं शताब्दी तक माना जाता है। सातवीं शताब्दी के बाद से इस सम्प्रदाय में एक नई प्रवृत्ति प्रवेश करती है । मन्त्रों के चमत्कार में आकर्षण तो था ही, अतएव अनुयायियों की संख्या काफी बढ़ चुकी थी। विशेष स्थिति में मैथुन की छूट पहले ही मिल चुकी थी। अब सम्प्रदाय में स्त्री पुरुष दोनों थे ही, धन की भी कमी नहीं थी। बनएव काम वासना का जोर बढ़ने लगा और कमल- कुलिश की साधना प्रारम्भ हो
१. Sir John Woodroffe-Shakti and Shakta, Page 163-64. राहुल सायन उचाली १० १२७ ।
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