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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
श्रावश्यक है कि नाना सम्प्रदायों, व्यवस्थाओं, चमत्कारों और विधि विधानों का मोह त्याग कर मन को निर्विकार बनाने की चेष्टा की जाय, क्योंकि किसी सम्प्रदाय में दीक्षा मात्र ले लेने से इष्टसिद्धि नहीं हो जाती । यदि योगी बनकर कान आदि फड़ाया जाय, मुद्रा धारण की जाय, किन्तु तृष्णा का संहार न किया
तो वह किसी काम का नहीं । जती होकर इन्द्रियों को नहीं जीता, पंचभूतों को नहीं मारा, जीव-अजीव को नहीं समझा तो वेष लेकर भी पराजय ही मिलेगी। वेद पढ़कर ब्राह्मण कहलाने का गर्व किया, किन्तु ग्रात्म-तत्व का अर्थ नहीं समझा, तो जीवन निष्फल । जंगल जाकर भस्म और जटा को धारण किया, किन्तु पर-वस्तु की आशा का संहार न किया, तो जंगल जाना न जाना बरावर । इस प्रकार सभी सन्त बाह्य अनुष्ठान की अपेक्षा आन्तरिक शुद्धि की महत्ता का प्रतिपादन करते हैं ।
पुस्तकीय ज्ञान :
जिस प्रकार केवल वाह्य आचार से सिद्धि नहीं मिल जाती, उसी प्रकार केवल पुस्तकीय ज्ञान भी आत्म तत्व की उपलब्धि नहीं करा सकता । शास्त्र तो एक प्रकार से पथ दर्शक हैं, साधन हैं, लक्ष्य या साध्य नहीं । व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा शास्त्रों से जाना जा सकता है, किन्तु निश्चयनय से वीतराग स्वसंवेदन - ज्ञान ही आत्म तत्व की उपलब्धि करा सकता है । शास्त्र - ज्ञान दीपक के समान है और श्रात्मज्ञान रत्न के समान है। दोपक के प्रकाश से रत्न खोजा जा सकता है, किन्तु इससे दीपक रत्न नहीं हो जाता । इसलिए केवल शास्त्रीय ज्ञान में पारंगत व्यक्ति आत्म-लाभ नहीं कर सकता, उसे आत्मज्ञान या स्वसंवेदन ज्ञान का आश्रय लेना पड़ता है ।
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केश के मुड़ाए कहा, भेप के बनाए कहा, जीवन के आए कहा जगहू न खैहे रे । भ्रम की विलास कहा, दुर्जन में वास कहा, आतम प्रकास बिन पीछे पछि रे ।। ६ ।
( ब्रह्मविलास, पृ० १७४ )
१. जोगी हुवा कान फडाया भोरी मुद्रा डारी है।
गोरख कहै त्रसना नहीं मारी, धरि घरि तुम ची न्यारी है || २ || जती हुआ इन्द्री नहीं जीती, पंचभूत नहिं मारया है ।
जीव जीव के समझा नाहीं, भेष लेइ करि हाग्या है ||४||
वेद पढ़े अरु बरामन कहावे, वरम दस नहीं पाया है।
आत्म तत्व का अर्थ न समज्या, पोथी का जनम गुमाया है ||५|| जंगल जावै भम्म चढ़ावै जटा व धारी परमत्र की आसा नहीं मारी, फिर जैसा का
कैसा है। तैसा है ||६||
( रूपचन्द --- स्फुट पद )