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सप्तम अध्याय
केइ केस लुचावहिं केइ सिर जट भारु ।
अप्प बिंदु ण जाहिं, आणंदा ! किम जावहिं भवपारु || ||
(वा)
योगीन्दु मुनि ने भी कहा कि जिसने जिनवर का वेष धारण करके, भस्म से शिर के केश लुञ्चन किया, किन्तु सभी प्रकार के परिग्रहों का परित्याग नहीं किया, वह अपने आत्मा को ही धोखा देता है :
केण विपचियउ सिरु लुनिवि छारे । सयल वि सग परिहरिय जिगावर लिंग धरेण ॥६०॥ ( प ० ० हा ०२३२) यही नहीं, उन्होंने तो यह भी कहा है कि पढ़ लेने से धर्म नहीं होता, पुस्तक और और पिच्छीधारण से धर्म नहीं होता, किसी मठ में रहने से भी घम नहीं होता तथा केश लौंच करने से भी धर्म नहीं होना:
धम्मु पढ़ियई होइ, धम्मु ण पोत्था पिच्छ्रियई । धम्मु ण मढिय पएस, धम्मु स मत्था तु वियई ॥ ४७॥
(सीमसार) कहने का तात्पर्य यह है कि भाव शुद्धि के विना अपरिग्रही बने विना, कोई भी बाह्य क्रियासिद्धिदायक नहीं हो सकती । जो साधु बाह्य लिंग से युक्त है, किन्तु आभ्यन्तर लिंग रहित है, वह एक प्रकार से आत्मस्वरूप से भ्रष्ट है, मोक्ष पथ का विनाशक है, क्योंकि भाव ही प्रथम लिंग है. द्रव्यलग कभी भी परमात्मपद प्राप्ति में सहायक नहीं हो सकता, शुद्ध भात्र ही गुण दोष का कारण होता है। भाव शुद्ध या मन शुद्धि के बिना कोई भी सम्प्रदाय सिद्धिदायक नहीं हो सकता । भाव शुद्धि मे ही आत्म प्रकाण सम्भव है। भैया भगवतीदास का तो कहना है कि नर शरीर धारण करने से, पण्डित बनने से और तीर्थ स्नान करने से क्या लाभ ? करोड़पति हो जाने से या क्षत्रधारी बन जाने से भी क्या लाभ ? केश लुञ्चन से, वेप धारण से अथवा यौवन की गरिमा से क्या लाभ ? इनमें से कोई भी सिद्धिदायक नहीं, कुछ भी स्थायी नहीं । श्रात्म प्रकाश के बिना पीछे पछताना पड़ेगा । अतएव निर्वाण के लिए, परमात्म रूप बनने के लिए
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१. बाहिरलिंगे जुदो अभंतरलिंगर हरियम्मी | सो सगचरित्तो मोक साहू ६१.
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२. भावो हिंमलिंगंग दव्वलिंगं च जागा परमत्थं । भावी कारणभूतो गुणदोसा जिणा विति ॥ २ ॥
(कुन्दकुन्दाचार्य भावाड )
कहा,
३. नरदेह पाए कहा, पंडित कहए तीरथ के नहाए कहा तीर तीन जह रे । लच्चिन के कमाए कहा न् के वाए कहा, छत्र के भगये कहा, चंता न ऐहे रे ।