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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
स्पष्ट हो जाता है। वह आत्मा जो शुद्ध और निर्विकार होने पर अलोकाकाश में स्थित होता है, वही इस देह में भी विद्यमान है। योगीन्दु मुनि कहते हैं कि जो निर्मल और ज्ञानमय परमात्मा सिद्धलोक में बसता है, वही परब्रह्म शुद्ध, बुद्ध स्वभाव परमात्मा शरीर में भी रहता है, दोनों में भेद नहीं करना चाहिए :
जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ । तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ ॥२६॥
(परमा०, प्र० महा०, पृ० ३३) श्री देवसेन कहते हैं कि जिस प्रकार कर्ममल रहित ज्ञानमय सिद्ध भगवान सिद्धलोक में निवास करते हैं, वैसे ही इस देह में परब्रह्म का आवास है। जिस प्रकार सिद्ध भगवान नोकर्म, (शरोरादि कर्म ) भावकर्म (रागद्वेषादि) द्रव्यकर्म ( ज्ञानावरणादि ) से रहित तथा केवल ज्ञान आदि गुणों से परिपूर्ण, शुद्ध, अविनाशी, एवं परावलम्ब रहित है, वैसे ही मैं हूं। निश्चयनय से मैं सिद्ध हूं, शुद्ध हूं, अनन्तज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य आदि गुणों से पूर्ण हूं, अविनाशी हूँ, देहप्रमाण होकर भी असंख्यात-प्रदेशी हूँ तथा स्पर्श रस गन्ध वर्ण और क्रोध आदि कलुषता से रहित होने के कारण अमूर्तीक हूं। मुनि रामसिंह ठीक कवीर की ही भाषा में कहते हैं कि 'अहुठ हाथ की देहली' में अर्थात् ३३ हाथ के शरीर रूपी देवालय में निर्विकल्प, निर्विकार, निरंजन देव का आवास है, निर्मल होकर वहीं उसको खोजो :
हत्थ अहुट्ठह देवली वालहं णाहि पवेसु । संतु णिरंजणु तहिं बसइ, णिम्मलु होइ गवेसु ॥१४॥
(पाहुडदोहा, पृ० २८) कवि लक्ष्मीचन्द भी कहते हैं कि शरीर रूपी देवालय में ही शिव का वास है, वह अन्य किसी देवालय में नहीं रहता है, हे मूर्ख ! भ्रम में पड़कर उसको अन्यत्र क्यों खोजता है ?
हत्थ अहुट्ठ जु देवलि, तहि सिव संतु मुणेइ । मढ़ा देवलि देउ णवि, मुल्लउ काहं भमेइ ॥३८॥
(दोहाणुवेहा)
१. तुलनीय-इहैवान्त : शरीरे सोम्य स पुरुषो ॥ प्रश्नो० ६ । २। २. मलरहियो णानमओ णिवसई सिद्धीए जारिसो सिद्धो।
नारिसश्रो देहत्यो परयो बंभो मुणेभव्बो ।२६।। गोकम्म रहिश्रो, केवल णाणाइ गुण समिहो जो। सोऽहं सिद्धो सुद्धो णिच्चो एक्को णिरालम्बो ||२७|| सिद्धोऽहं सुद्धोऽहं अणतणाणाइ गुण समिद्धेहं । देहपमाणो णिच्चो असंखदेसो अमुत्तोय ||२८ (देवसेन-तत्वसार)