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घष्ठ अध्याय
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'परमात्मप्रकाश' में भी कहा गया है कि यह आत्मा ही परमात्मा है, किन्तु कर्म बन्ध के कारण पराधीन होकर दूसरे का जाप करता है, किन्तु जब अपने स्वरूप का परिज्ञान हो जाता है उस समय यह प्रात्मा हो परमात्मा बन जाता है।' जब तक कर्म बन्धन रहता है. जीव संसार बन में भटकता रहता है, दुःखों को सहन करता रहता है, अतएव मोक्ष के लिए आप्ट कमों का हनन अतीव आवश्यक है।
आनन्दतिलक भी निर्वाण प्राप्ति के लिए दो साधनों काही निर्देश करते हैं -अष्टकर्मों का नाश और आत्मा के स्वरूप को जानकारी। प्रथम के विनाश से दूसरे की जानकारी होती है और तब मोक्ष मिल जाता है। वे कहते हैं कि हे मुनिवर। ध्यानरूपी सरोवर में अमृत जल भरा है, उसमें स्नान करके अष्ट कर्म मल को धो डाल, जिससे निर्वाण प्राप्त हो सके :
'माण सरोवरु अमिय जलु, मुणिंवरु करइ सरहाणु ।
अठकर्ममल धोवहिं अणन्दा रे। णियडा पाहुं णिवाणु ॥५|| वह दूसरे स्थान पर कहते हैं कि आत्मा संयम शील गुण समन्वित है, आत्मा दर्शनज्ञानमय है, आत्मा ही सभी प्रकार का व्रत, तप है, आत्मा ही देव और गुरू है, इस भावना से मोक्ष प्राप्त हो जाता है :
अप्पा संजमु सील गुण, अप्पा दंसणु णाणु । वउ तउ संजम देउ गुरू आणन्दा ते पावहि णिव्वाणु ॥२३॥
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परमात्मा का वास शरीर में :
परमात्मा का स्वरूप कैसा है ? उसकी स्थिति कहाँ है? उसकी प्राप्ति कैसे सम्भव है ? इन विषयों पर भी अनेक प्रकार के मतवाद और सिद्धान्त प्रचलित हैं। लेकिन रहस्यवादी साधक परमात्मा की स्थिति अपने शरीर में ही मानता है। उसका विश्वास है कि ब्रह्म का निवास शरीर में ही है, किन्तु अज्ञानवश हम उसको जान नहीं पाते । निर्गुणिर्चा सन्तों की वाणियाँ इसी तथ्य की घोषणा करती हैं। उपनिषदों में इसी रहस्य को प्रकाश में लाया गया है और जैन रहस्यवादी भी ब्रह्म या परमात्मा को शरीर में ही स्थित घोषित करते हैं। जब वे यह स्वीकार कर लेते हैं कि प्रात्मा ही परमात्मा है, अलग से ब्रह्म नामक कोई दूसरी शक्ति या सत्ता नहीं, तो यह सिद्धान्त और अधिक
१. एहु जु अपा सो परमप्पा कम्म विसेम जायउ जप्पा । जायइ जाणइ अप्पे अप्पा तामइ सो जि देउ परमप्पा ॥१७४॥
(परमात्म०, द्वि० महा०, पृ० ३१७) २. पावहि दुक्खु महंतु तुहूं जिय संसारि भमंतु । अठ वि कम्मई पिद्दलिवि वच्च हि मुक्खु महंतु ॥११॥
(परमा०, द्वि० महा०, पृ० २६३)