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षष्ठ अध्याय
प्रदीपस्येव निर्वाण त्रिमोक्षस्तस्य चेतसः ( प्रमाण वार्तिकालंकार १।४५ ) । जैन दर्शन कर्म बन्धन से निष्कृति हो मोक्ष मानता है। संचित कर्मों का विनाश और नए कर्मों के आगमन पर निरोध होने पर आत्मा मुक्त 'जाता है। आस्रव का संवर होने पर निर्जरा की स्थिति आती है। आत्मा में स्व-पर की विवेक शक्ति समुत्पन्न हो जाती है और तब आत्मा पर पदार्थों का संग त्याग करके अलोकाकाश में स्वतन्त्र और निर्मल रूप से विचरण लग्ने लगता है-बंधहेत्वभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्म विप्रमोक्षो मोक्षः (तत्वार्थ सूत्र १०१२ ) जैन आचार्यों ने आकाश के दो भेद स्वीकार किया है- लोकाकाश और अलोकाकाश | लोकाकाश षडद्रव्यों से युक्त है, किन्तु में केवल निर्मल, निर्विकार आत्मा ही पहुँच पाते हैं । बौद्ध मत आत्मा के अस्तित्व को ही नहीं स्वीकार करता, इसीलिए वहाँ इस प्रकार की कल्पना का प्रश्न ही नहीं उठता। अन्य दर्शनों में भी अलोकाकाश जैसे तत्व की कल्पना नहीं मिलती है । वेदान्त आत्मा को परमात्मा का ही अंश मानता है । उनके अनुसार यह जीव मायाग्रस्त होने के कारण अपने स्वरूप को भूल गया है। माया का आवरण भंग होने पर आत्मा अपने अंशी ब्रह्म में लीन हो जाता है । 'तत्त्वमसि' का यह परिज्ञान अथवा श्रात्मा का ब्रह्म में तदाकार होना ही वहाँ मोक्ष माना गया है। किन्तु जैन दर्शन न तो आत्मा के गुणों का विनाश ही मोक्ष का कारण मानता है और न किसी दूसरी शक्ति में आत्मा के विलय को ही मोक्ष मानता है। उसके अनुसार आत्मा में ही परमात्मा बनने की शक्ति है, किन्तु पौद्गलिक पदार्थों के संसर्ग में पड़कर वह अपनी शक्ति को भूल गया है। यदि कर्मों का विनाश हो जाय और आत्मा के अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त वीर्य, अनन्त सुख यादि स्वाभाविक गुण विकसित हो जाय तो 'मोक्ष' की स्थिति ग्रा जाएगी। इस प्रकार आत्मा का परमात्मा की कोटि तक पहुंच जाना ही मोक्ष है । श्रात्मा के तीन पर्यायों का विवरण पहले ही दिया जा चुका है। प्रथम अवस्था अज्ञान की अवस्था होती है, जब आत्मा शरीर के सुख दुःखों को अपना सुःख दुःख मानता है, द्वितीय अवस्था (अन्तरात्मा) में आत्मा में स्व-पर विवेक की शक्ति पैदा हो जाती है, किन्तु वह पूर्णविद् या पूर्णज्ञानी नहीं बन पाता । तृतीय अवस्था वह है, जब आत्मा कर्म के बंधन से मुक्त हो जाता है, उसके सभी गुण प्रकट हो जाते है और वह परमात्मा वन जाता है । परमात्मावस्था हो मोक्ष है । परमात्म पद और मोक्ष में कोई अन्तर नहीं । एक ही अवस्था के ये दो पर्यायवाची शब्द हैं। यहां पर यह विशेष रूप से दृष्टव्य है कि वैशेषिक दर्शन गुणों के विनाश को मोक्ष मानता है, जब कि ठीक उसके विपरीत आत्मा के गुणों के पूर्ण विकास में ही जैन दर्शन मोक्ष की अवस्था स्वीकार करता है ।
इस प्रकार यहाँ मोक्ष का तात्पर्य हुआ आत्मा का राग-द्वेषादि मोहों से छुटकारा पाना । कुत्कुत्दाचार्य ने लिखा है कि जो श्रात्मा पुण्य पाप के कारण शुभ-अशुभ भावों को त्याग देता है, परद्रव्यों की इच्छा से विरक्त हो जाता है, अपरिग्रही वन जाता है, दर्शनज्ञानमय आत्मा में स्थिर होकर अपने को ध्याता है, भावकर्म, नोकर्म को रंच मात्र भी स्पर्श नहीं करता है, केवल एक