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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
जो स-सहाव चएवि मुणि परभावहि परणेइ । सो आसउ जाणेहिं तुहुँ जिणवर एम भणेइ ॥१७॥
(दोहणुवेहा) कुछ आचार्यों ने प्रास्रव के दो भेद किए हैं-द्रव्यास्रव और भावास्रव । आत्मप्रदेश पर पुद्गल का आगमन द्रव्यास्रव है और जीव में राग-द्वेष आदि मोह का परिणाम भावास्रव है।
आस्रव का निरोध अर्थात् नए कर्मों के आगमन पर रोक संवर है। यह संवर ही निर्जरा का और अनुक्रम से मोक्ष का कारण होता है। यदि नए कर्मों के आगमन को न रोका जाए तो जीव कभी कर्मबंधन से मुक्त हो ही नहीं सकता। लक्ष्मीचन्द के अनुसार जो स्व-पर को जान लेता है और परभावों का परित्याग कर देता है, उसे संवर कहते हैं :
जो परियाणइं अप्प परु, जो पर भाउ चएइ । सो संवर जाणेवि तुहुँ, जिणवर एम भणेइ ॥१६॥
___ ( दोहापाहुड़) बनारसीदास ने लिखा है कि आत्मा के घातक और आत्म-अनुभव से रहित, आस्रव नामक पदार्थ महा अंधकार के समान जगत के सभी जीवों को घेरे हुए है। उनको नप्ट करने के लिए जिसका प्रकाश सूर्य के समान है, जिसमें सभी पदार्थ प्रतिबिम्बित होते हैं तथा जो आकाश प्रदेश के समान सबसे अलिप्त है, उसे 'संवर' कहते हैं।
नए कर्मों के आगमन पर प्रतिबंध लगने के साथ ही साथ यह भी आवश्यक है कि पुराने कर्मों को भी नष्ट किया जाय, क्योंकि बिना उनके क्षय के मुक्ति सम्भव नहीं। बंधे हुए कर्मों से जीव के अलग होने को 'निर्जरा' कहते हैं। इस प्रकार 'संवर' द्वारा नए कर्मों के आगमन पर रोक लग जाती हैं और निर्जरा द्वारा पुराने कर्मों का नाश हो जाता है, तब जीव कर्म बंधन से मुक्त हो जाता है। यह मुक्ति या मोक्ष ही प्रत्येक जीव का गन्तव्य या लक्ष्य है। अतएव मोक्ष प्राप्ति के लिये कर्मों का विनाश अनिवार्य है।
मोक्ष:
मोक्ष का अर्थ है मुक्ति अथवा छुटकारा मिलना अर्थात् जीव का कर्म बंधन से मुक्त हो जाना ही मोक्ष है। किन्तु मोक्ष या निर्वाण के संबंध में सभी दर्शन भिन्न भिन्न बात कहते हैं। वैशेषिक दर्शन आत्मा के गुणों का विनाश ही मोक्ष मानता है, उसके अनुसार बुद्धि, सुख,दुख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार
आदि आत्मा के नौ गुणों के पूर्ण उच्छेद का नाम मोक्ष है। बौद्धों के अनुसार दीप निर्वाण के समान चित्त सन्तति के प्रशान्त होने पर मोक्ष की स्थिति आ जाती है
१. बनारसीदास - नाटक समयसार ( संवर द्वार) पृ० १५६ ।