________________
षष्ठ अध्याय
१५३
से जैन आचार्यों ने आत्मा की तीन अदम्य की कल्पना की है। वे - निमा. अन्तरात्मा और परमात्मा। आचार्य कुन्दकुन्द ने 'मोक्वपाहुड़' में', स्वामी कातिकेय ने 'कार्तिकेगानुप्रेक्षा' में, पूज्यपाद ने 'समाधितन्त्र' में, आशाधार ने 'अध्यात्म रहस्य' में , योगोन्दुमुनि ने मामाग', और 'योगमार' में', भैया भगवतीदास ने 'ब्रह्मविलास' में, पीर द्यानतराय ने 'धर्मविलास' में आत्मा की तीन अबस्थानों पर विचार किया है।
__श्री योगीन्दु मुनि कहते हैं कि प्रान्मा के तीन भेद होते हैं-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। अन्तरात्मा सहित होकर परमात्मा का ध्यान करो और भ्रान्तिरहित होकर बहिरात्मा का त्याग करो :
ति पयारो अप्पा मुणहि परु अंतर बहिरप्पु । पर मायहि अंतर सहिउ बहिरु चयहि भिंतु ॥६॥
(योगसार, पृ०३७२) आत्मा के ये भेद उसकी किसी जाति के वाचक नहीं हैं, अपितु भव्यात्माकी अवस्था विशेष के संद्योतक है। बहिरात्मा उम अवस्था का नाम है, जिसमें यह आत्मा अपने को नहीं पहचानना, देह तथा इन्द्रियों द्वारा स्फुरित होता हुआ, उन्हीं को आत्मस्वरूप समझने लगता है। इमीलिए मुड़ और अज्ञानी कहलाता है। अपनी इसी भूल के कारण वह नाना प्रकार के कष्ट सहन करता है। योगीन्दु मुनि ने इसीलिए इस अवस्था को प्रात्मा की 'मुद्रावस्था', दूसरी को 'विचक्षण' और तीसरी को 'ब्रह्मावस्था' माना है। प्रथम अवस्था में आत्मा मिथ्यात्व रागादि में फंसा रहता है। पं० पाशाधर इसे बहिरात्मा या मुढ़ात्मा न कहकर 'स्वात्मा' कहते हैं। उनका कहना है कि जो आत्मा निरन्तर हृदय कमल के मध्य में अहं शब्द के वाच्य रूप से पशुओं तक को और स्वसंवेदन से ज्ञानियों तक को प्रतिभासित करता रहता है वह स्वात्मा है। इस अवस्था में आत्मा अपने और शरीर
१. मोक्खपाहुइ, दोहा नं०४ से १२ तक । २. कार्तिकेया नुमेधा, गाथा नं. १३२ से १६८। ३. समाधितन्त्र, श्लोक नं०४ से १५ तक । ४. अध्यात्मरहस्य, इलोक नं० ४ से 5 तक। ५. परमात्मप्रकाश, दोहा नं०१३ से २८ तक ।
योगसार, दोहा नं०६ से २२ तक । ७. ब्रह्म विलास, (परमात्मछत्तीसी) पु० २२७ । ८. धर्म विलास, (अध्यात्म पंचासिका), पृ० ११२। ६. मूढ़ वियरवणु बंभु परु अप्पा तिविहु हवेइ । देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूढ़ हवेइ ॥१३॥
(मामप्रकार, प्र० महा०) १०. स स्वात्मत्युच्यते शश्वद्भाति हृत्पंकजोदरे। योऽहमिल्यं जसा शब्दात्यशूनां स्व विदा विदाम् ॥४॥
(अध्यात्मरहस्य)