________________
१५२
अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
असरीरू वि सुसरीरू मुणि इहु सरीरू जडु जाणि । मिच्छा मोहु परिच्ययहि मुत्ति गियं वि ण माणि ॥ ६१ ॥ ( श्री योग न्दु-योगसार, पृ० ३८४ )
शुद्ध आत्मा को अशुचि शरीर से भिन्न समझनेवाला, किसी भी शास्त्र पारंगत विद्वान् से बढ़कर है । इन दोनों के अन्तर का परिज्ञान हो जाने पर कुछ जानने को रह ही नहीं जाता। मुनि रामसिंह कहते हैं कि 'जानो जानो' क्या कहते हो ? यदि ज्ञानमय आत्मा को शरीर से भिन्न जान लिया तो फिर जानने को रह ही क्या गया ?
'बुज्हु बुज्हु जिरण भरणइ को बुज्झर हलि अण्णु । अप्पा देहहं गाणम छुडु बुज्झियउ विभिगु ॥ ४० ॥
( दोहा पाहुड़, पृ० १२ ) व्यक्ति जब शरीर जन्य संकल्प-विकल्पों और रागद्वेषों से विमुख रहता हुआ आत्मसुख की ही चिन्ता में लीन हो जाता है तब शरीर के जरा मरण का भी उस पर प्रभाव नहीं पड़ता, क्योंकि वह समझ लेता है कि आत्मा से इसका कोई सम्बन्ध नहीं, वह तो अजर अमर है ।
आत्मा की अवस्थाएँ :
आत्मा अज्ञान में कब तक फँसा रहता है ? अज्ञान से मुक्ति कैसे सम्भव है ? और ज्ञानी आत्मा की क्या स्थिति होती है ? इन प्रश्नों पर भी साधकों ने काफी विचार किया है । वेदान्त दर्शन के अनुसार आत्मा, परमात्मा का अंश है । माया, मोह, अज्ञान आदि से मुक्त होने पर वह परब्रह्म परमात्मा में लीन हो जाता है । माया ही जीव और परमात्मा के मिलन में व्यवधान है । अतएव उसी से निष्कृति साधक का लक्ष्य है ।
जैन साधकों ने आत्मा का स्वरूप किंचित भिन्न रूप में वर्णित किया है । उनके अनुसार यद्यपि आत्म-द्रव्य सदैव एकरूप रहता है तथापि पर्याय दृष्टि से उसमें अवस्था भेद होता रहता है । सामान्यतया वह पौद्गलिक पदार्थों से घिरा होने के कारण उनमें इतना आसक्त हो जाता है कि अपनी शक्ति और स्वरूप का विस्मरण कर देता है । ऊपर हम दिखा आए हैं कि किस प्रकार वह शरीर को ही सर्वस्व समझ लेता है । लेकिन ज्ञान समुत्पन्न होने पर आत्मा और शरीर में अन्तर समझने की विवेक दृष्टि उसमें आ जाती है और एक अवस्था ऐसी भी आती है जब वह परमात्मा बन जाता है । जैन दर्शन में किसी भिन्न, नियामक परमात्मा की सत्ता स्वीकृत नहीं है और न यही मान्य है कि आत्मा किसी परमशक्ति में मिल जाता है और अपने अस्तित्व को समाप्त कर देता है। जैन दर्शन तो यह मानता है कि आत्मा में ही वह शक्ति है कि वह स्वयं परमात्मा बन जाय । इस प्रकार अनन्त आत्माएँ, अनन्त परमात्मा बन सकती हैं । प्रत्येक की स्थिति उस समय भी दूसरे से भिन्न रहेगी । एक प्रदेशी होते हुए भी सभी आत्माएँ, परमात्मा बन जाने पर भी एक दूसरे से अप्रभावित रहेंगी। इस दृष्टि