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षष्ठ अभ्याय
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मुनि रामसिंह ने 'दोहापाहड़' में आत्मा में उपर्युक्त गुणों का निषेध किया है। आपने लिखा है :
'हउं गोरउ ह सामलउ, हर मि विभिएण उ वरिण । हर तणु अंगउ थूलु हां, एहउ जीव म मरिण || २६ ॥ ण वि तुहं पंडिउ मुक्खु ण वि, ण वि ईसरु ण विणीसु । ण वि गुरू कोइ वि सीसु ण वि सब्ई कम्मविसेसु ॥ २७ ॥ हउं वरु बंभणु णवि वइसु, णउ खत्तिउ ण वि सेसु । पुरिसु एउंसउ इत्थि ण वि, एहउ जाणि विसेसु ॥ ३१॥
(दोहापाहुड, पृ०६-१०) इस प्रकार आत्मा यद्यपि व्यवहारनय से विभिन्न शरीर धारण करता है, पौद्गलिक कर्मों का कर्ता है और सुख दुःख आदि फलों का भी भोक्ता है तथापि निश्चयनय से वह केवल चेतन भाव का कर्ता है और रूप, रस, गंध, वर्ण से रहित है। श्री पूज्यपाद ने 'इष्टोपदेश' में कहा है कि मैं एक सबसे भिन्न हूं, ममत्वरहित हूं, शुद्ध हूं, ज्ञानी हूं, योगियों द्वारा जानने योग्य हूं, और पर के संयोग से उत्पन्न समस्त भाव मेरे स्वभाव से बाह्य हैं।' निश्चयनय से न आत्मा का मरण होता है, न रोग; तब भय अथवा दुःख कहाँ से होगा?
वस्तुत: आत्मा नित्य, निरामय और ज्ञानमय है तथा परमानंद स्वभाव वाला है। लेकिन भ्रमवश वह अपने स्वरूप को भूल गया है। सामान्यतया शरीर और आत्मा को एक समझ लिया जाता है। शरीर के सुख-दुःखों को आत्मा का सुख दुःख मान लिया जाता है और शरीर के जन्म-जरा-मरण को प्रात्मा की उत्पत्ति, वृद्धि और मृत्यु स्वीकार कर ली जाती है। इस भेद को न जानने के कारण ही जीव नाना योनियों में भ्रमण करता हुआ, अनेक प्रकार के कष्टों को सहन करता रहता है। भैया भगवतीदास जीव की इस दशा को
अप्पा बंभणु बहसु ण वि, ण वि खत्ति ण वि सेसु । पुरिसु णउंसउ इत्य ण वि, णाणि मुणइ असेसु ।। ८७ ॥ अप्पा बन्दउ खवणु ण वि, अप्पा गुरउ ण होइ । अप्पा लिंगिउ एक्कु ण वि, णाणिउ जाण जोह ।।८।। अप्पा पंडि 3 मुक्खु ण वि, गवि ईसरु णवि णीसु । तरुणउ बूढ उ बालु गवि, अण्णु वि कम्म विसेसु ।। ६१ || अप्पा संजन सोलु तउ, अप्पा दंसणु णाणु । अप्पा सासय मोक्ख पउ, जाणतउ अप्पाणु ।।६३ ||
(परमात्मप्रकाश, प्र० महा.) १. एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगीन्द्रगोचरः।
बाहयाः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥२७॥