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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
अतएव जब तक व्यक्ति व्यवहारनय के मोह से पड़ा रहता है, उसे असत्य में हो सत्य की भ्रान्ति होती रहती है, मिथ्यावस्तु को ही वास्तविक पदार्थ समझता रहता है। यहाँ तक कि शरीर और आत्मा में अन्तर न जानने के कारण वह शरीर की आसना में निरत रह कर, अपने को परितोष देता रहता है कि वह आत्मा का उपासना कर रहा है। इस प्रकार वह सम्पूण जीवन भ्रम में फंसा रहता है और अन्ततः उसे दुःख और निराशा ही हाथ लगते हैं। पारमार्थिक नय से ही इस भ्रान्ति का निराकरण सम्भव है :
ववहारणओ भासदि जोवो देहो य हवदि खलु एक्को । रणदु णिच्छयस्स जीवो दैहो य कदावि एक्कट्ठो ॥२७॥
(श्री कुन्दकुन्द-समयसार)
किन्तु अज्ञानी जीव निश्चय स्वरूप को न पहचान कर, व्यवहार को ही निश्चय मान लेते हैं, जिस प्रकार बालक, जो बिल्ली और सिंह दोनों को नहीं जानता, बिल्ली को ही सिंह मान लेता है।' व्यवहारनय को ज्ञान की चरमसीमा मानने वाले जन वाहयाचार में ही फंसे रहते हैं। इसीलिए जैन साधकों ने बायाचार की कटु निन्दा की है और मूर्ति पूजा का निषेध किया है। प्रसिद्ध कवि श्री बनारसीदास शरीर पूजा अथवा मूर्ति पूजा को निस्सारता घोषित करते हुए कहते है कि जीव जब तक अज्ञानी रहता है, व्यवहारनय तक हो उसकी दृष्टि सीमित रहती है, वह शरीर और चेतनतत्व आत्मा को एक समझ शरीर की उपासना में निरत रहता है, किन्तु निश्चयनय को प्राप्त व्यक्ति दोनों के भेद को जान लेता है :
तन चेतन विवहार एक से, निहचै भिन्न भिन्न हैं दोइ । तन की थुति विवहार जीव थुति, नियतदृष्टि मिथ्या थुति सोइ ।। जिन सो जीव जीव सो जिनवर, तन जिन एक न मानै कोइ । ता कारन तन की संस्तुति सो जिनवर की संस्तुति नहि होइ ॥३०॥
(बनारसीदास-न टक समयसार ) जो साधक व्यवहारनय वो परित्यागकर निश्चयनय को ग्रहण करते हैं, वे शुद्ध चित्त से आत्मतत्व का ध्यान अपने जीवन का परम सत्य मान लेते हैं। उनके लिए आत्मा और सच्चिदानन्द ब्रह्म में कोई अन्तर नहीं रह जाता। वह पूर्ण विश्वास कर लेता है कि आत्मा और सत्-चित्-आनन्दस्वरूप ब्रह्म एक ही हैं, दोनों में कोई तात्विक अन्तर नहीं :
माणवक एव सिंहो यथा भवत्यनवगति सिंहस्य । व्यवहार एव हि तथा निश्चयतां यात्यनिश्चयज्ञस्य || (श्री अमृतचन्द्र सूरि विरचितः 'पुरुषार्थसिद्धयुपायः' प० १० ।)