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चतुर्थ प्रत्याय
है । अतएव राग, द्वेष, मोह आदि भाव जो व्यवहार पड़ते हैं, शुद्ध से शरीर के है। नहीं है :
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से आत्मा के दिखाई
आत्मा से इनका कोई सम्बन्ध
'चि उत्पजवि मरइ बन्धु मोक्य करें | जिउ परमत्यें जोड़ा जिवक एवं भगोड अस्थि स उभइ जर मग्गु रोय वि लिंग विवरण | रियमिं अविभाणि तु जीवहं एक्क विसरण ||३६|| देहहं उभर जर मरण देहं व विचित्तु । देहं रोय वियाणि तु देहं लिंग विचितु ॥७॥ देहं व जर मरगु मा भउ जीव करेति । जो अजरामर वंभु परु सो अपणु मुगहि ॥ ७१ ॥ (परमात्मकाः)
व्यवहारनय की सीमाएँ :
इस प्रकार सप्ट हो जाता है कि व्यवहारतय अपूर्ण सत्य का होतक है, जबकि निश्चय या परमार्थनय पूर्ण सत्य का प्रतीक है । एक अर्ध सत्य का ज्ञान कराता है, तो दूसरा पूर्ण और सम्यक् सत्य को उपलब्ध कराता है । अतएव व्यवहारनय अंशतः सत्य होने पर भी, अन्ततः असत्य है । इसीलिए श्री कुन्दकुन्दाचार्य ने कहा था कि व्यवहारनय 'सत्य' का उद्घाटन नहीं करता है, जबकि परमार्थनय वस्तुस्थिति का यथार्थ परिज्ञान कराने में सक्षम है। अतएव इस पथ के अनुगामी आत्मा को ही सम्यक् दृष्टा कहा जाएगा :ववहारोऽभूत्थो भूत्थो देसिदो दु सुद्धा ओ | भूदत्यमस्सिदो खल सम्मादिट्ठी हवदि जीवो ॥११॥ ( कुन्द्र०, समयसार )
आगे चल कर आपने teens में यहाँ तक कह दिया है कि व्यवहारनय निन्द्रा है तो निश्चवनय जागरण । यदि एक हमें अज्ञान और मोह की निन्द्रा में डाल कर यथार्थ से दूर रखता है तो दूसरा ज्ञान चक्षुत्रों को खोलता है, सत्य को अनावृत करता है । अतः जो व्यवहार में जगता है, वह निश्चयनय से आँख मूंद लेता है और जो व्यवहारनय से स्वप्नावस्था में है, पारमार्थिक दृष्टि से जग रहा है :
जो सुत्तो ववहारे सो जोई जग्गर सकज्जाम ।' जो जग्गदि ववहारे सो सुत्तो अपणे कज्जे ||३१|| ( मोक्खपाहुड)
१. तुलनीय :
या निशा सर्वभूतानां तेषां जागर्ति संयमी । यस्यां जागर्ति भूतानि सा निशा पश्यतो सुने ||
(श्रीमद्भागवत गीता )