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तृतीय खण्ड
चतुर्थ अध्याय मूल्यांकन की दो दृष्टियाँ व्यवहारनय और निश्चयनय
नय द्वय :
जैन अध्यात्म भिन्नता में अभिन्नता और अनेकता में एकता का पोषक है। वह अनेक दिखाई पड़नेवाले और समझे जानेवाले पदार्थों के मूल में एकरूपता के दर्शन करता है। यह सिद्धान्त 'प्रात्मतत्व' के साथ विशेषरूप से संलग्न है। सामान्यत: प्रात्मा के विषय में विद्वानों में अनेक मत प्रचलित हैं। उसकी सत्ता को अनेक प्रकार से स्पष्ट करने का यत्न किया जाता है। अनेक विशेषणों और गुणों से युक्त कर उसकी नाना अवस्थानों और पर्यायों की कल्पना की जाती है। दर्शन, ज्ञान, चरित्र आदि गुणों को उसका अनिवार्य और प्रधान अंग माना जाता है। साथ ही यह भी प्रश्न उठाया जाता है कि क्या दर्शन, ज्ञान और चरित्र जो 'आत्मा' के गुण हैं, उससे किस मात्रा में भिन्न और किस मात्रा में अभिन्न हैं अर्थात् पदार्थ और गुण में क्या सम्बन्ध है ? क्या गुण को ही पदार्थ मान लिया जाय ? अथवा गुण और पदार्थ को भिन्न-भिन्न सत्ता माना जाय ? यदि गुण को ही पदार्थ माना जाय तो किस गुण विशेष को ? इस विवादपूर्ण और पेचीलो समस्या का उत्तर देने के लिए और आत्मतत्व के मूल्यांकन हेतु जैन दर्शन दो दृष्टियों या नयों को अपनाता है। वे हैं- व्यवहारनय और निश्चयनय।