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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन - रहस्यवाद
इन रचनाओं के अतिरिक्त 'मिश्रबन्धु विनोद' में 'एकी मौन भाषा' और 'एकीभाव भाषा' नामक दो अन्य ग्रन्थों की सूचना दी गई है । इसके अतिरिक्त आपने काफी मात्रा में फुटकल पदों की भी रचना की थी । ३३३ पद प्रकाशित हो चुके हैं, किन्तु विभिन्न जैन शास्त्र भाण्डारों में अभी और फुटकल पद सुरक्षित हैं। जयपुर के शास्त्र भाण्डारों में १४३ पद पाए गए हैं, इनमें अनेक नए पद भी हैं।
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आपकी इन रचनाओं के अध्ययन से पता चलता है कि आप मूलतः धार्मिक प्रवृत्ति के लेखक थे। जैन धर्म द्वारा मान्य सिद्धान्तों और विधि विधानों का अनुसरण और प्रचार ही आपकी काव्य रचना का उद्देश्य था । फिर भी आपके काव्य में यत्र तत्र उस अध्यात्मवादी और रहस्यवादी प्रवृत्ति के लक्षण मिल जाते हैं, जो आपके पूर्ववर्ती और समकालीन जैन कवियों की सामान्य विशेषता थी । 'जैन पद संग्रह' में यह प्रवृत्ति प्रधान रूप से दिखलाई पड़ती है। एक स्थान पर आप कहते हैं कि ऐ मेरे भाई । ऐसा सुमिरन कर कि पवन रुक जाय, मन नियन्त्रित हो जाय । तप ऐसा हो कि फिर तप न करना पड़े, जप ऐसा हो कि पुनः उसकी आवश्यकता न पड़े, व्रत ऐसा धारण करे कि उसकी पुनरावृत्ति की आवश्यकता न पड़े और मृत्यु भी ऐसी हो कि फिर मृत्यु से ही मुक्ति मिल जाय । ऐसे जप तप से ही सहज वंसत का आगमन होता है और तब साधक शिव आनन्द में किलोल करने लगता है । 'धर्म विलास' में भी ऐसी कुछ रचनाएँ हैं, जो धार्मिक संकीर्णता के पाश से मुक्त होकर आत्मानुभव का रस पान कराती हैं । 'उपदेश दोहा शतक', 'ज्ञान दशक' और विशेष रूप से 'अध्यात्म पंचासिता को हम इसी कोटि की रचनाएँ मान सकते हैं । 'ज्ञान दशक' में ग्राप कहते हैं कि तु 'मैं मैं' क्या करता है तन धन भवन आदि को देख कर वस्तुतः यह संसार तो विनाशशील है और तू अविनाशी है । किन्तु मोह और अज्ञान में फँसकर तु ग्रपने को भूल गया है । तेरे श्वासोच्छ्वास के साथ 'सोहं सोहं' शब्दायमान होता रहता है, यही
१. मिश्रबन्धु विनोद, ०६२२ ।
२. ऐसा सुमिरन कर मेरे भाई ।
पवन थमै मन कितहुन जाई | टेक ॥
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सो तप तो बहुरि नहिं तपना, सो जय जनो बहुरि नहिं जपना । मो बहुरि नहिं धरना, ऐसो मरो बहुरि नहिं मरना || ऐसो ०३ ||
३. मैं मैं का करत है. तन धन
वन निहार | तू अविनासी श्रानमा, विनामीक संसार ||४|
( धर्म विलास, ०६५ ) ।