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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
"पंचेन्द्रिय सम्बाद" में आपने इन्द्रियों के पारस्परिक संलाप द्वारा, उनके मर्म का उद्घाटन किया है। नाक, कान, आँख, जिह्वा और स्पर्श क्रमश: अपने-अपने महत्व और गुरुत्व का प्रतिपादन स्वत: करते हैं, किन्तु एक इन्द्रिय के गुणों का तिरस्कार और प्रत्याख्यान दूसरी के द्वारा हो जाता है। नम्नान् पंचेन्द्रिय मम्राट् मन अपनी सर्व-व्यापकता और सर्वशक्तिमत्ता का वर्णन करते हुए, इन्द्रियों से अपने को श्रेष्ठ सिद्ध करने का प्रयत्न कन्ता है :
मन राजा मन चक्रि है, मन सबको सिरदार । मन सों बड़ो न दूसरो, देख्यो इहि संसार ॥११२।।
(पृ० २४६) किन्तु अन्त में मुनिराय मन को परमात्मोन्मुख होने का उपदेश देते हैं और बताते हैं कि परमात्मा का ध्यान करने से ही मन का कल्याण हो सकता है, अन्यथा नहीं। मन परमात्मा के अस्तित्व से अनभिज्ञता प्रकट करता है । अतएव मर्व प्रथम मुनिराय इन्द्रिय सुख की क्षणभंगुरता और नश्वरता का वर्णन करते हैं, फिर परमात्मा की प्राप्ति का उपाय बताते हैं। उनका कहना है कि जहाँ राग द्वेष नहीं है, वहीं परमात्मा का आवास है । उसका ध्यान करने से साधक स्वयं परमात्मा बन जाता है :
'परमातम उहि ठौर है, राग द्वेष जिहिं नाहि । ताको ध्यावत जीव ये, परमातम है जाहिं ।।१२३।।
(पृ० २५० ) वह अविनाशी, अविकारी और सदैव समान रहने वाला है, परद्रव्यों से सर्वथा भिन्न है। परमात्मा पंच वर्ण, पंचरस, आठ स्पर्श और दोनों प्रकार के गन्ध मे भी भिन्न है :
बड़े घटै कबहूं नहीं रे, अविनाशी अविकार | भिन्न रहै परद्रव्य सों रे, सो चेतन निरधार ॥१३६|| पंच वर्ण में जो नहीं रे, नहीं पंच रस मांहि । आठ फरस से भिन्न है रे, गंध दोऊ कोउ नाहिं ॥१४०।।
(पृ० २५१) इस प्रकार भगवतीदास ने बड़े ही मनोरम ढङ्ग से इन्द्रियों के स्वरूप और अचिरन्तनता का वर्णन करने के पश्चात् आत्मा और परमात्मा का स्वरूपविश्लेषण किया है।
भैया भगवतीदास का महत्व केवल उच्चकोटि की अध्यात्म परक काव्य रचना करने वाले कवि की दृष्टि से ही नहीं है, अपितु आपके काव्य का कला पक्ष की अतीव सवल है। आपका अध्ययन प्रगाढ़ था। आपने न केवल जैन आचार्यों के दार्शनिक ग्रन्यों का हो अध्ययन किया था, अपितु संस्कृत और हिन्दी
१. प्राविलास..... चन्द्राबाद, पृ० १६८से २५२ तक।