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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन-रहस्यवाद
मुनि यशोविजय का जीवन काल निश्चित ही है। वह श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान हो गए हैं। संस्कृत तथा अन्य प्रादेशीय भाषाओं के आप अच्छे पण्डित थे। अापने लगभग ५०० ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें जैन तर्क भाषा, ज्ञान बिन्दु, नयरहस्य, नयप्रदीप आदि काफी प्रसिद्ध हैं। उनका जन्म सम्बत् १६८० और मृत्यु सं० १७४५ माना जाना है। बड़ौदा के अन्तर्गत 'दभोई नगर में उनकी समाधि बनी हुई है. जिस पर लिखा है कि सम्वत् १७४५ के मार्गशीर्ष मास की शुक्ला एकादशी को उनका देहावसान हुआ।
काल निर्धारण :
मुनि यज्ञोशिजय के इस विवरण से इतना तो निश्चित ही हो जाता है कि आनन्दघन भी मं० १६८० और मं० १७४५ के बीच विद्यमान थे। यशोविजय ने 'आनन्दघन' की प्रगस्ति में जो अप्टपदी लिखी हे, उससे यद्यपि आपके सम्बन्ध में कोई विशेष जानकारी नहीं प्राप्त होती, फिर भी इतना संकेत मिलता है कि आनन्दघन सच्चे साधक थे, मांसारिक सुख-दुःख और माया-मोह से ऊपर उठकर अध्यात्म-परक जीवन व्यतीत करते थे। मदेव आत्मिक आनन्द अथवा परमात्मानुभूति में मग्न रहते थे और यगोविजय जी को भी इनके सत्संग से लाभ हआ था तथा भगवद्भक्ति की प्रेग्णा मिली थी। यशोविजय ने लिखा है कि सच्चे 'आनन्द' की अनुभूति उसी को हो सकती है, उसी के हृदय में आनन्द ज्योति का प्रस्फुटन सम्भव है तथा सहज सन्तोप उसी को प्राप्त होता है, जो आनन्दघन का ध्यान करता है :
'आनन्द कोउ नहिं पावै, जोइ पावै सोइ अानन्दघन ध्यावै । आनन्द कोंन म्प ? कोंन आनन्दघन ? आनन्द गुण कोंन लखावै ? सहज सन्तोष आनन्द गुण प्रगटत, सब दुविधा मिट जावै ।
जस कहै सो ही आनन्दघन पावत, अन्तर ज्योति जगावै ॥३॥ प्रानन्दघन मदेव 'अचान अन्न व पद' में विवरण करते हुए 'सहज सुख' में आनन्द मग्न रहा करते थे। नी दगा ही चित्त के अन्तर में जब प्रगट हो, तव कोई व्यक्ति प्रानन्दघन को पहचान सकता है :
'आनन्द की गति आनन्द जाने । वाई सुख सहज अचल अलख पद, वा सुख सुजस वखाने । मुजस विलास जव प्रगटे आनन्द रस, आनन्द अछम खजाने । ऐसि दसा जब प्रगटे चिन अन्तर, सोहि आनन्दघन पिछाने ॥६॥
१. प्राचार्य विश्वनाथ प्रमाद मिश्र- घनानन्द और अानन्दघन, पृ० ३३१ । २. प्राचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र-घनानन्द और आनन्दवन, पृ० ३३२ ।