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अपभ्रंश और हिन्दी में जैन रहस्यवाद
थे। वस्तुतः बनारसीदास की अभिरुचि धर्म और साहित्य की ओर थी। अतएव वे आगरा में अपना अधिकांश समय काव्य रचना और विद्वानों की बैठक में ही व्यतीत करते थे। सम्वत् १६९२ में अनायास इनके गुरु पाण्डे रूपचन्द का आगरा आगमन हुआ। पाण्डे रूपचन्द ने आकर तिहुना साहु नामक व्यक्ति के यहाँ डेरा डाला। इनके आगमन से बनारसीदास को काफी प्रोत्साहन मिला। वे अन्य अध्यात्म प्रेमी जैनियों के साथ वहां प्राय: जाने लगे और पाण्डेजी से 'गोम्मटसार' नामक प्रसिद्ध ग्रन्थ की व्याख्या सुनी :
तिहुना साहु देहरा किया। तहां आइ तिन डेरा लिया। सब अध्यातमी कियो विचार। ग्रन्थ बचायौ गोमटसार॥ ६३१ ॥
(अधकथानक, पृ० ५८) उनके द्वारा स्याद्वाद की व्याख्या सुनकर तथा जैन सिद्धान्तों एवं दार्शनिक ग्रन्थों को मुन कर बनारसीदास की जैनधर्म के प्रति भक्ति और अधिक दृढ़ हो गई। लेकिन यह साथ अधिक दिन तक नहीं रह सका। दैवयोग से दो वर्ष बाद ही सम्वत् १६९४ में पाण्डे रूपचन्द की मृत्यु हो गई।
रूपचन्द का विस्तृत विवरण ज्ञात नहीं है। बनारसीदास के 'नाटक समयसार' में इनका उल्लेख मिलता है। १७ वीं शताब्दी में आगरा जैन विदवानों का केन्द्र था। रूपचन्द भी आगरावासी थे तथा वनारसीदास के मित्रों में से थे । बनारसीदास ने अपने पांच मित्रों का उल्लेख किया है और बताया है कि उनके साथ बैठकर प्रायः ज्ञान चर्चा हआ करती थी:
नगर आगरा मांहि विख्याता, कारन पाइ भये बहु ज्ञाता । पंच पुरुष अति निपुन प्रबीने,
निशिदिन ज्ञान कथा रस भीने ॥ १० ॥ रूपचन्द पंडित प्रथम, दुतिय चतुर्भुज नाम । तृतिय भगौतीदास नर, कौरपाल गुनधाम ॥ ११ ॥
सोलह सै बानवे लौं, कियौ नियत रस पान । पै कीमुरी सब भई, स्याद्वाद परवान ॥ ६२६ ।। अनायास इस ही समय, नगर आगरे थान | रूपचन्द पंडत गुनी, अायो अागम जान ।। ६३० ।।
(बनारसीदास - अर्धकथानक, पृ० ५७) तब बनारसी औरै भयो, स्यादाद परिनति परिनयो। पाडे रूपचन्द गुरु पास, सुन्यो ग्रन्थ मन भयो हुलास । ६३४ ।। फिरि तिस समै बरस द्वै बीच, रूपचन्द को श्राई मीच । सुनि सुनि रूपनन्द के बैन, बानारसी भयौ दिढ जैन ॥ ६३५॥
(बनारसीदास-अधकथानक, पृ०५८)