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________________ 100 : अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय के साथ दिव्य भोग भोगता है, आयु के क्षय होने पर ऋद्धि-सम्पन्न पुरुष बनता है। वह केवली प्ररूपित धर्म श्रवण कर उस पर श्रद्धा, प्रतीति एव रुचि रखता है, वह मरकर किसी देवलोक मे पैदा होता है, लेकिन वह किसी भी प्रकार का प्रत्याख्यान स्वीकार नही कर सकता, यह उसके निदान का पापकारी परिणाम है । 8. श्रमण का श्रावक बनने के हेतु निदान : हे आयुष्मन् श्रमणो । केवली प्ररूपित धर्म ही सत्य यावत् सभी दुखो का अत करने वाला है। इस धर्म का आचरण करने वाला कोई निर्ग्रन्थ / निर्ग्रन्थिन यावत् मानव को अशाश्वत जानकर, उनसे विरक्त बनकर यह सोचे कि मेरे सम्यक् आचरित इस तप, नियम और ब्रह्मचर्य का विशिष्ट फल हो तो मैं भविष्य मे विशुद्ध मातृ-पितृ पक्ष वाला उग्रवशी, भोगवशी पुरुष बनकर श्रमणोपासक बनूँ । जीवाजीव का ज्ञाता बनकर आत्मा को भावित करता हुआ विचरण करूँ तो यह श्रेष्ठ होगा । ऐसा विचार करके वह मृत्यु को प्राप्त होकर देव बनता है । वह दिव्य ऋद्धि का उपभोग करके आयु क्षय होने पर ऋद्धिशाली पुरुष बनता है, जिसकी सेवा मे बहुत से नौकर, दासादि रहते है। उसको कोई साधु केवली प्ररूपित धर्म सुनाता है तो वह सुनता है, उस पर श्रद्धा, प्रतीति, रुचि करता है । श्रावक के ग्रहण योग्य व्रतो को ग्रहण करता है, लेकिन पूर्वकृत निदान के कारण साधु नहीं बनता । यह निदान का पापकारी परिणाम है। वह श्रावक वर्षो तक श्रावक पर्याय का पालन करता है । अत मे सलेखना सारा करके देवलोक मे देव बनता है। 9. निर्ग्रन्थ का श्रमण बनने हेतु निदान : हे आयुष्मन् श्रमणो । केवली प्ररूपित धर्म ही सत्य रूप है, यावत् समस्त दुखो का अंत करने वाला है। उस धर्म मे यत्न करता हुआ कोई साधु यावत् मानवीय भोगो से विरक्त बनकर सोचे कि मानुषिक भोग अध्रुव यावत् त्याज्य हैं। देव सम्बन्धी भोग भी भव परम्परा बढाने वाले हैं, अतएव अवश्यमेव त्याज्य हैं। अतएव मेरे द्वारा सम्यक् आचरित तप, सयम और ब्रह्मचर्य का फल हो तो मैं भविष्य मे अन्तकुल, प्रान्तकुल, तुच्छकुल, दरिद्रकुल, कृपणकुल या भिक्षु कुल मे पुरुष बनूँ जिससे मै प्रव्रजित होने के लिए सुविधापूर्वक गृहवास का परित्याग कर सकूँ तो श्रेष्ठ होगा । ऐसा निदान कर वह निर्ग्रन्थ / निर्ग्रन्थिन देव रूप मे उत्पन्न होते हैं। वहाँ पर दिव्य देव सम्बन्धी भोगो का उपभोग कर वह निदानानुसार पुरुष रूप मे
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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