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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय: 99
महान् ऋद्धि वाला / वाली देव बनकर, दिव्य भोगो को भोगू तो श्रेष्ठ होगा । ऐसा निदान करके वह साधु/ साध्वी मरकर देव बनकर पूर्व सकल्पानुसार अपनी विकुर्वित देवियो / देवो के साथ या स्वय की देवियो / देवो के साथ दिव्य भोग भोगता है। वह आयु क्षय होने पर ऋद्धिशाली पुरुष बनता है । अनेक दास-दासी उसकी सेवा मे रहते है और समय आने पर श्रमण माहन से वह केवली प्ररूपित धर्म भी श्रवण करता है, लेकिन उस पर श्रद्धा नहीं करता । वह अन्य दर्शन को स्वीकार कर उसका आचरण करता है और पर्णकुटी मे रहने वाला तापस, गॉव के समीप वाटिका मे रहने वाला तापस, अदृष्ट होकर रहने वाला तात्रिक बनता है। वह प्राण, भूत, जीव और सत्त्व की हिसा से विरत नहीं बनता और इस प्रकार की मिश्र भाषा का प्रयोग करता है
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मुझे मत मारो, दूसरो को मारो |
मुझे मत आदेश करो, दूसरो को आदेश करो ।
मुझे मत पीडित करो, दूसरो को पीडित करो ।
मुझे मत पकडो, दूसरो को पकडो ।
मुझे मत भयभीत करो, दूसरो को भयभीत करो।
इस प्रकार वह मानवी सम्बन्धी कामभोगो मे गृद्ध होकर अतिम समय मे देह त्याग कर किल्विषिक मे पैदा होता है। वहाँ से च्यवकर पुन भेड बकरे के रूप मे पैदा होता है ।
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हे आयुष्मन् श्रमणो । यह निदान का पापकारी परिणाम है कि वह केवली प्ररूपित धर्म पर रुचि नही रखता ।
7. श्रमणी - श्रमण का देव सम्बन्धी भोग हेतु निदान :
हे श्रमणो ! कोई साधु या साध्वी यावत् मानवीय काम-भोगो से विरक्त होकर यह सोचे
मनुष्य सम्बन्धी कामभोग तो अध्रुव यावत् त्याज्य है, लेकिन जो ऊपरी देवलोक मे देव हैं, वे अन्य देवो की देवियों के साथ एव स्वय विकुर्वित देवियो के साथ विषय-सेवन नहीं करते, किन्तु अपनी देवियो के साथ रतिक्रीडा करते है । यदि मेरे भी सम्यक् आचरित तप, नियम और ब्रह्मचर्य का कल्याणकारी विशिष्ट फल हो तो आगामी काल मे मैं भी इस प्रकार के दिव्य भोगो को भोगता हुआ विचरण करूँ, तो श्रेष्ठ होगा ।
ऐसा निदान करके कोई निर्ग्रन्थ / निर्ग्रन्थिन देव बनकर मात्र अपनी ही देवियो (क) किल्विपिक - अन्त्यज देव