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________________ अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 87 का घात करती है। यह तथ्य वह कायर मुनि मृत्यु के मुख मे पहुँचने पर पश्चात्तापपूर्वक जान पायेगा । वह साधक आराधना मे विपरीत दृष्टि रखता है, अतएव उसकी श्रमणत्व मे रुचि निरर्थक है । वह इहलोक, परलोक मे सुख से रहित चिता से क्षीण हो जाता है । इस प्रकार स्वच्छन्दLXI और कुशील साधक जिनेश्वर भगवान् के मार्ग की विराधना करके निरतर परिताप को प्राप्त होता है। 140 जैसे मासलोलुप गीध पक्षिणी मास का टुकडा मुँह मे लेकर चलती है, तब दूसरे पक्षी उस पर झपट पडते है, उस समय वह पक्षिणी सामर्थ्यरहित होकर उनका प्रतिकार नही करने से पश्चात्ताप करती है, वैसे ही भोगो मे गृद्ध साधु इहलौकिक- पारलौकिक अनर्थ प्राप्त होने पर न स्वय की रक्षा कर सकता है और न दूसरो की । अतएव ऐसा अनाथ मुनि शोक-सागर में निमज्जित हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान साधक को कुशीलो के मार्ग का परित्याग कर महानिर्ग्रन्थो के पथ का अनुसरण करना चाहिए। ऐसा करने से साधु ज्ञान और शील मे रॅगकर, अनुत्तर संयम का पालक बनकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है । अनाथ मुनि ने अपनी दिव्य देशना प्रवाहित की जिसे राजा श्रेणिक स्तब्ध बना श्रवण कर रहा था। श्रेणिक ने देखा, वस्तुत ये मुनि कर्मशत्रुओ का हनन करने मे उग्र, इन्द्रियजयी, महातपस्वी, महाप्रतिज्ञ, महायशस्वी है। इन्होने मुझे आज पहली बार अनाथ - सनाथ का सुन्दर स्वरूप बतलाया है। अतएव अब इनका मधुर-गिरा से अभिवादन करना चाहिए। ऐसा चितन कर राजा श्रेणिक ने हाथ जोडकर कहा-भगवन् ! आज अनाथता का यथार्थ स्वरूप आपश्री ने मुझे बतला दिया है । हे महर्षि ! आपका जन्म और जीवन सफल है। जिनेश्वरो के मार्ग मे स्थित आप सच्चे सनाथ एव बाधव हैं। आप सभी अनाथो के नाथ हैं। मैं आपसे क्षमायाचना करता हॅू और आपसे शिक्षित होने की अभिलाषा रखता हूँ। मैंने आपसे प्रश्न पूछकर आपकी ध्यान साधना मे जो विघ्न समुपस्थित किया, आपको भोगो के लिए आमंत्रित किया, एतदर्थ क्षमाप्रार्थी हूँ । इस प्रकार अणगार सिह उस मुनि की स्तुति करके विमल मनवाला, राजा श्रेणिक धर्म मे अनुरक्त हो गया । जिनेश्वरो के मार्ग पर उसकी श्रद्धा का नवजागरण हुआ । भक्ति से उसके रोमकूप उल्लसित हो गये और वह मुनि भगवत को श्रद्धाभिषिक्त होकर वंदन करके लौट गया । 141 जिनानुरागी : श्रेणिक नृपति श्रेणिक अनाथी मुनि से सम्पर्क करके अत पुर मे लौट गये, तथापि अब उनका मन धर्मानुराग से रजित हो गया। वे अपने अत पुर मे अपनी महारानियो ܐ ! 1 4 1 1
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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