SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 7 i अपश्चिम तीर्थंकर महावीर, भाग-द्वितीय : 79 प्रात काल होने पर राजा स्वप्नफल जानने के लिए स्वप्न पाठको को बुलाता है । स्वप्नपाठक भी स्वप्न का वही अर्थ बतलाते है, जो महाराजा बतलाते है । राजा परिपूर्ण धनादि देकर स्वप्नपाठको को विदा करता है। महारानी सुखपूर्वक अपने गर्भ का निर्वहन करने लगती है। दो मास अत्यन्त शुभ भावो के साथ व्यतीत हुए। तीसरा मास प्रारम्भ हुआ। इसी तृतीय मास मे महारानी धारिणी को एक विचित्र दोहद पैदा हुआ कि आकाश मे श्वेत, पीत, रक्त, नील और कृष्ण- इन पचवर्णी बादलो के घिरने से भूमण्डल का दृश्य रमणीक बन गया है। मन्द मन्द बौछारो से धूलि जम गयी है। पृथ्वी रूपी रमणी ने हरी घास का कचुक (वस्त्र) धारण कर लिया है। वृक्षो पर नव-नवीन पल्लवो का आगमन हो गया है। निर्झर का श्वेत जल कल-कल का निनाद करता हुआ तीव्र गति से बह रहा है। पुष्पो पर आगत पराग अपनी परिमल से वातावरण को सुगंधित बना रहा है। उन पर भ्रमर गुजार कर रहे हैं। वृक्षो की टहनियो पर बैठे मयूर मेघो की घटाओ को देखकर केकारवर कर रहे है तो कहीं तरुण मयूरियो को देखकर मयूर पख फैलाकर अद्भुत नर्तन कर रहे हैं। आकाश मे उडते हुए चक्रवाक और राजहस मानसरोवर की ओर जा रहे हैं। ऐसे सुन्दरतम पावस काल के समय जो स्त्रियाँ अपने पतियो के साथ वैभारगिरि पर्वत पर विहार कर रही हैं, आनन्द ले रही हैं, वे धन्य हैं। वे माताएँ धन्य हैं जिनके पैरो मे नूपुर, कटि पर करधनी और वक्षस्थल पर दिव्य हार सुशोभित हो रहे हो । कलाइयों पर सुन्दर कडे अगुलियो मे अगूठियाँ तथा भुजाओ पर भुजबन्द बँधे हो। जिनके गात्र पर ऐसा वेशकीमती बारीक वस्त्र सुशोभित हो जो मात्र नाक के निश्वास से उडने लगे। जिनके मस्तक पर पुष्पमालाएँ श्रृंगारित हो। इस प्रकार साज-सज्जा समन्वित सेचनक हस्ती पर आरूढ होकर, कोरट की माला का छत्र धारण किये, श्वेत चामरो सहित हस्ती रत्न के स्कन्ध पर राजा श्रेणिक के साथ बैठी हो । चतुरगिणी सेना से परिवृत, अनेक वाद्यो की ध्वनियो तथा अनेक सुगन्धित पदार्थों की सुगन्ध से सुगन्धित राज्य के मुख्य मार्गों से विहरण करती हुई, अनेक नागरिको द्वारा अभिनन्दन की जाती हुई वैभारगिरि पर्वत पर पहुँच जाये। वहाँ वैभारगिरि के निचले हिस्सो मे सघन तरुवृन्दो के झुरमुटो मे, लताकुजो मे परिभ्रमण करती हुई अपने दोहद को पूर्ण करती है। इस प्रकार मेघ घटाएँ घिरने पर मैं भी अपने दोहद को पूर्ण करना चाहती हूँ। (क) परिमल-मुगन्ध (ग) कटि-कमर (ख) केकारव - मयूर को आवाज (घ) करधनी - कदौरा
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy