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________________ 60 : अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय श्रेणिक ने करडक को इतना हिलाया कि लड्डू चूर-चूर हो गए। तत्पश्चात् सलियो से उस घडे मे छिद्र कर दिए। लड्डू का चूरा निकलने लगा। उसे श्रेणिक ने खाया और पानी के घडे मे छेद करके बुद-बूद करके निकलने वाले जल को एकत्रित करके पीया। श्रेणिक की कुशाग्र बुद्धि को देखकर उस समय राजा प्रसेनजित ने उसे ही राज्य सत्ता सम्भलाने का निश्चय किया। इसी बीच एक बार कुशाग्र नगर मे लगातार अग्नि का उपद्रव होने लगा। घर-घर मे आग लगने लगी। तब राजा प्रसेनजित ने अवसर को पहिचानकर घोषणा करवाई कि इस नगर मे अब जिसके भी घर मे अग्नि लगेगी, उस गृहस्वामी आदि को रोगी ऊँट की तरह घर से बाहर निकलना पडेगा। सभी लोग अतिसतर्कता से रहने लगे, लेकिन एक दिन रसोइये के प्रमाद से नृपति के घर मे अग्नि लग गई। वह अग्नि निरन्तर बढने लगी। तब राजा ने अपने राजकुमारो को आज्ञा दी कि मेरे इस राजभवन से जो वस्तु तुम ले जाना चाहो ले जाओ, क्योकि यह राजभवन तो मेरी घोषणानुसार मुझे छोडना ही पडेगा। तब सब कुमारो ने अपनी रुचि अनुसार हाथी, घोडे, रत्नादि ग्रहण कर लिए। लेकिन श्रेणिककुमार ने मात्र एक भभावाद्य को ग्रहण किया। राजा प्रसेनजित ने श्रेणिक से पूछा-श्रेणिक, तुमने केवल भभावाद्य को क्यो ग्रहण किया? श्रेणिक ने कहा-पिताश्री । भभावाद्य राजाओ का जय चिह्न है। यह भूपतियो की दिग्विजय के लिए श्रेष्ठ मगल है। अतएव इस वाद्य की रक्षा करनी चाहिए। श्रेणिक की बुद्धिमत्ता को श्रवण कर राजा ने प्रसन्न होकर उसका नाम भमासार रख दिया। अब राजा प्रसेनजित ने अपनी प्रतिज्ञा पर दृढ रहते हुए राजभवन में आग लगने पर कुशाग्रपूर नगर का परित्याग कर दिया और वहाँ से एक कोस दूर छावनी बनाकर रहने लगे। जब नृपति राजभवन त्याग कर जाने लगे तब लोगों ने पूछा-राजन् | आप कहाँ जा रहे हो? राजा ने बड़ी विचक्षण प्रज्ञा से उत्तर दिया कि मैं राजगृह अर्थात् राजा के घर जा रहा हूँ। तब उसी छावनी के स्थान पर समय आने पर राजा ने राजगृह नगर बसाया और वहाँ पर रमणीय महल, किला आदि बनवाये। वहीं पर सुखपूर्वक रहने लगा। राजा प्रसेनजित ने एक दिन विचार किया कि अब राज्य का भार किसी सुयोग्य राजकुमार के कर्धा पर डालना चाहिए। तब उसने सभी कुमारो की योग्यता पर दृष्टिपात किया, लेकिन श्रेणिक के अतिरिक्त उन्हे राज्य सत्ता संभालने में कोई योग्य नहीं लगा। इसी बात को दृष्टि में रखते हुए राजा ने श्रेणिक की योग्यता को गुप्त रखना ठीक समझा। क्योकि अन्य
SR No.010153
Book TitleApaschim Tirthankar Mahavira Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh Bikaner
PublisherAkhil Bharat Varshiya Sadhumargi Jain Sangh
Publication Year2008
Total Pages257
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Biography, & Story
File Size11 MB
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