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अपश्चिम तीर्थकर महावीर, भाग-द्वितीय : 249 देव बनने के पश्चात् प्रभावती ने राजा को भिन्न-भिन्न प्रकार से प्रतिबोधित करने का प्रयास किया, लेकिन नृपति प्रतिबुद्ध नहीं हुआ। तब देव ने विचार किया कि उदायन नरेश ऐसे ही सबोधि प्राप्त करने वाला नहीं है। इसलिए उसने नरेश को प्रतिबुद्ध करने के लिए अवधिज्ञान से उपाय सोचा। उपाय जानकर उसने तापस का रूप बनाया और हाथ मे दिव्य अमृतफल भरे हुए पात्र को ग्रहण कर राजा उदायन के समीप गया। तत्पश्चात् राजा को अमृत फल से सभृत पात्र भेट दिया। ऐसी सुन्दर भेट प्राप्त कर राजा फूला नहीं समाया। उसने तापस से पूछा-ये अपूर्व अमृत-फल तुम कहाँ से लाये हो?
तापस-इस नगर के समीप 'दृष्टि-विश्राम' (दृष्टि को आनन्द मिले ऐसा) उद्यान है, उसमे ऐसे दिव्य फल हैं।
राजा-चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ, मुझे वो आश्रम बता दे ।
तापस-चलिये! यो कहकर दोनो साथ-साथ चलते हैं। थोडी दूर जाकर तापस रूपी देव ने नन्दनवन जैसा एक उद्यान निर्मित किया। उसमे अनेक तापस एव प्रफुल्लित मनोरम अमृतफल नेत्रो को लुब्ध बना रहे थे, जिनकी शोभा दृष्टिगत कर राजा अपने-आपको रोक ही नहीं पाया और वह फल लेने के लिए लपका कि तपस्वी साक्षात प्रेत के समान नृप का सहार करने के लिए दौडे। तब राजा भी भयभीत होकर चोर की तरह बेतहाशा भागने लगा। तब भागते-भागते उसने जैन साधुओ को सन्मुख देखा । उस समय साधुओ ने राजा से कहा-राजन् भयभीत मत बनो। तब राजा उन साधुओ की शरण को स्वीकार कर लेता है। सकट से मुक्त बनकर वह जैनधर्म का अवलम्बन ग्रहण करता है। देव, गुरु और धर्म के प्रति उसकी दृढ आस्था जागृत हो जाती है और समय आने पर बारह व्रत-धारी श्रावक बन जाता है।' कुब्जा का हरण : __ उदायन राजा के यहाँ पर अनेक दास-दासी-भृत्यादि थे, उनमे एक देवदत्ता नामक कुब्जा दासी भी थी। एक बार गाधार नामक पुरुष गाधार देश से वैताढ्य पर्वत पर आया और उस गिरिमूलख मे उपवास करके साधना करने लगा। उसकी भक्ति से प्रभावित होकर शासनदेवी ने उसके मनोरथ पूर्ण किये। उसको वैताढ्य गिरि की तलहटी मे छोडा और मनोरथ पूर्ण करने वाली एक सौ आठ गोलियाँ दीं।
तब उसने एक गोली मुँह मे रखी और सोचा कि मुझे वीतिभय नगर जाना है। तब वह वीतिभय नगर पहुंच गया। वहाँ उसका शरीर व्याधिग्रस्त हो गया। उस समय उस देवदत्ता नामक कुब्जा दासी ने अत्यन्त समर्पण भाव से उसकी (क) कुन्जा-कुबड़ी
(ख) गिरिमूल-पर्वत की तलहटी