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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 205 किया यह ठीक नहीं। इस प्रकार पश्चात्ताप करते हुए प्रभु की महिमा का गुणगान करने लगे और अपने घरों की ओर लौट गये।
प्रभु ने वहां से विहार किया और कोशाम्बी पधारे। वहां प्रभु प्रतिमा धारण कर कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। तब विमान सहित सूर्य-चन्द्र ने आकर भक्ति से सुख-साता पूछी और वन्दन कर पुनः लौट गये। वहां से पूर्वानुपूर्वी से विहार करते हुए प्रभु वाराणसी नगरी पधारे। वहां शक्रेन्द्र आये। अत्यन्त आनन्दसहित प्रभु को वन्दन कर लौट गये। वहां से प्रभु राजगृह नगर पधारे। वहां प्रतिमा धारण कर कायोत्सर्ग में स्थित रहे। वहां ईशानेन्द्र प्रभु के दर्शन करने आये। वन्दन-नमस्कार कर सुख-साता पूछकर पुनः लौट गये। वहां से विहार कर प्रभु मिथिलापुर नगर पधारे। वहां कनक राजा और धरणेन्द्र ने प्रभु की पर्युपासना की। वहां से विहार कर प्रभु विशालापुर नगर पधारे। उस नगरी में समर नामक उद्यान था। उद्यान में बलदेव का मन्दिर था। प्रभु उस मन्दिर में ग्यारहवां चातुर्मास करने पधार गये । चार महीने तक आहार--पानी का परित्याग कर प्रतिमा धारण कर स्थित हो गये। वहां भूतानन्द नामक नागकुमारों के इन्द्र आये। प्रभु को वन्दन-नमस्कार किया और निवेदन किया, प्रभो! आप महान कष्टसहिष्णु हैं, अब आपश्रीजी को शीघ्र ही केवलज्ञान होने वाला है।
विशालापुरी के बलदेव मन्दिर में प्रभु निरन्तर आत्मसाधना में संलग्न हैं। विशालापुरी यथा नाम तथा गुणसम्पन्न है। विशालापुरी में विशालहृदयी जिनदत्त नामक एक तत्त्वज्ञाता श्रावक रहता था। उससे लक्ष्मी रुष्ट हो गयी। धन-वैभव क्षीण हो गया तब वह जीर्णश्रेष्ठि के नाम से विख्यात हो गया। एक बार वह जीर्णश्रेष्ठि समर उद्यान में आया तो उसने बलदेव के मन्दिर में प्रतिमाधारी प्रभु वीर को देखा। उसी समय मन में चिन्तन आया कि ये तो छद्मस्थ अवस्था में रहने वाले चौबीसवें तीर्थंकर हैं। ऐसा निश्चय करके प्रभु को वन्दन-नमस्कार किया और चिन्तन किया कि आज तो प्रभु के उपवास दिख रहा है इसी कारण भगवान् कायोत्सर्ग करके खड़े हैं। कल पधारेंगे तो मैं इन्हें मेरे घर ले जाऊँगा। वहां प्रासुक अन्न से पारणा करवाऊँगा। ऐसा विचार कर चला गया। दूसरे दिन सूर्योदय से ही भावना भाने लगा कि