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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 204 दिन पारणा करने के लिए गोकुल में पधारे। भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए एक वृद्ध गोपी वत्सपालिका के यहां निर्दोष खीर मिलने पर प्रभु ने खीर से वहां पारणा किया। समीपवर्ती देवों ने पांच दिव्य प्रकट किये। वहां से विहार कर प्रभु आलभिका नगरी में पधारे। वहां पर प्रतिमा धारण कर चित्रस्थ की तरह प्रभु स्थित हो गये। वहां हरि नामक विद्युत्कुमारों के इन्द्र भगवान के पास पहुंचे, तीन बार प्रभु को प्रदक्षिणा की और नमन करते हुए कहा- धन्य है प्रभु आपकी कष्ट-सहिष्णुता । आपने ऐसे घोरातिघोर उपसर्ग सहन कर लिये, पर जरा भी विचलित नहीं हुए। हम जैसों का तो श्रवण मात्र से हृदय कम्पायमान हो जाता है। आप तो वज्र से भी अधिक दृढ़ हैं। अब तो बहुत थोड़े उपसर्ग सहन करना अवशिष्ट है। उनको सहन करने के पश्चात् शीघ्र ही आप घातीकर्मों का नाश करके कैवल्य ज्योति को प्राप्त करेंगे। ऐसा कहकर भगवान को भक्तिपूर्वक नमस्कार करके वह इन्द्र अपने स्थान पर लौट गया। वहां से विहार करके प्रभु श्वेताम्बिका पधारे। वहां हरिस्सह नामक देव आते हैं, भगवान को वन्दना करके सुख-शांति पूछकर लौट जाते हैं।
प्रभु वहां से विहार करके श्रावस्ती नगरी पधारे, वहां प्रतिमा धारण करके कायोत्सर्ग में स्थित हो गये। उस दिन कार्तिक स्वामी की रथ यात्रा का महोत्सव था। सभी लोग कार्तिक देव की प्रतिमा की पूजा करने रथ यात्रा में जाने लगे। वहां पहुंच कर उन्होंने कार्तिक देव की प्रतिमा की पूजा-अर्चना की और उसे रथ में बिठाने के लिए तैयार हुए। उसी समय शक्रेन्द्र का अवधिज्ञान का उपयोग लगा और उन्होंने देखा कि श्रावस्ती के निवासी प्रभु को छोड़कर कार्तिक देव की पूजा कर रहे हैं। ये लोग कैसे अविवेकी हैं। इन्हें प्रभु की महिमा बतलानी चाहिए- ऐसा चिन्तन कर शक्रेन्द्र आये। उन्होंने कार्तिक की प्रतिमा में प्रवेश किया और प्रतिमा चलने लगी तब लोगों ने सोचा यह प्रतिमा स्वतः ही रथ में बैठने के लिए चल रही है, लेकिन प्रतिमा जहां प्रभु महावीर थे वहां आई । आकर प्रभु की तीन वार प्रदक्षिणा की और प्रभु की पर्युपासना करने के लिए वहां बैठ गयी तव लोगों ने चिन्तन किया कि ये देवार्य हमारे कार्तिक देव के पूज्य हैं। हमने इनका उल्लंघन