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अपश्चिम तीर्थंकर महावीर - 203 सौधर्म कल्प शोकाकुल बन गया है। जहां देखो वहां मायूसी ही मायूसी नजर आ रही है। ऐसा शोक कभी देखने को नहीं मिला। इसी शोक में छह मास व्यतीत हो गये।
अब संगम देव जम्बूद्वीप से सौधर्म कल्प में आया । पाप पंक से मलिन, शारीरिक कांतिरहित, प्रतिज्ञा से भ्रष्ट, इन्द्रिय शोभा से उपरत, लज्जा से नेत्रों को भूमि में गड़ाये उसने सुधर्मा सभा में प्रवेश किया। संगम को आते हुए देखकर इन्द्र का कोप द्विगुणित हो गया और वह बहुत ऊँचे स्वर में बोला- अरे देवताओं! यह संगम महापापी और कर्म से चाण्डाल है। इससे बोलना तो दूर, इसका मुंह देखने में भी भयंकर पाप लगता है। इसने हमारे स्वामी को बहुत कष्ट पहुंचाकर भयंकर अपराध किया है। इसको संसार परिभ्रमण से भी भय नहीं, तब मेरे से भय तो कैसे हो सकता है? इसने भगवान को अत्यन्त कष्ट पहुंचाया तो भी मैं उन्हें इस कष्ट से नहीं बचा सका क्योंकि अरिहंत भगवान दूसरों की सहायता नहीं चाहते हैं। इसलिए मैंने इस पापी को वहां जाकर कुछ नहीं कहा लेकिन अब इसे बिलकुल नहीं छोडूंगा। यह नीच देव यदि यहां रहेगा तो अपने को भी पाप लगेगा इसलिए इसको देवलोक से बाहर निकालना ही योग्य है। ऐसा कहकर क्रोध से आगबबूला शक्रेन्द्र स्वयं उठे और वज्र जैसे अपने बांये पैर से उस संगम पर प्रहार किया तब शस्त्रसज्जित इन्द्र के सैनिक धक्का मार कर उसे निकालने लगे। देवियां उसके हाथों की कलाइयां मरोड़ने लगीं। सामानिक देव उसकी हंसी करने लगे। इस प्रकार तिरस्कृत होकर वह संगम देव अपना एक सागरोपम का शेष आयुष्य भोगने के लिए सुमेरु पर्वत की चूलिका पर चला गया। तदनन्तर संगम की पत्नियों ने शक्रेन्द्र से आज्ञा मांगी- हे स्वामिन! यदि आपकी आज्ञा हो तो हम हमारे स्वामी देव के साथ सुमेरु पर जाना चाहती हैं। शक्रेन्द्र ने मात्र संगम की पत्नियों को सुमेरु पर जाने की आज्ञा प्रदान की, बाकी सब परिवार वहीं पर रहा। उसे शक्रेन्द्र ने आज्ञा नहीं दी। शक्रेन्द्र की आज्ञा से संगम की पत्नियां संगम के पीछे-पीछे सुमेरु पर चली गयीं21
इधर भगवान महावीर संगम का उपसर्ग दूर होने पर दूसरे