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अपश्चिम तीर्थकर महावीर - 170 का एहसास होने पर भी गुरु-चरणों में नहीं लौटने वाला पापी श्रमण होता है। गुरु से पृथक् स्वच्छन्द विचरण जीवन को मोक्ष से विमुख बना देता है। गुरु की अवज्ञा करने वाला भव-भवान्तर तक भटकता रहता है। जैसे पानी में घुली हुई नमक की डली को पानी से निकालना दुष्कर है वैसे ही गुरु से पृथक् हुए शिष्य को मोक्ष मिलना महादुर्लभ है । इस भव में भी वह महादण्ड का भागीदार बनता है। गोशालक तो एक दिन में ही घबरा कर सोचता है कि मुझे गुरुदेव के पास लौट जाना चाहिए। वह गोशालक प्रभु-दर्शन के लिए चल पड़ा। अरण्य पार किया और गुरुदेव को ढूंढने लगा।
प्रभु महावीर विहार कर विशालापुरी पधार गये। वहां कोई लुहार की शाला में आज्ञा लेकर प्रतिमा धारण कर कायोत्सर्ग करने लगे। उस शाला का स्वामी लुहार छ: महीनों से रुजा-पीड़ित था। वह भगवान के पदार्पण से क्षणमात्र में निरोग हो गया। निरोग होने पर वह अपने स्वजनों सहित अपनी लुहारशाला में आया। आते ही उसने भगवान को देखा और चिन्तन किया कि इतने लम्बे अन्तराल के बाद आज मैं यहां आया हूं और आते ही मुझे इस पाखण्डी के दर्शन हुए। आज तो बड़ा अपशकुन हुआ है इसलिए इसको घण से मारकर समाप्त कर देता हूं। ऐसा चिन्तन करके घण उठाकर भगवान को मारने के लिए तत्पर हुआ । इधर शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से भगवान् को देखा और देखते ही मुंह से निकला अरे! यह क्या? जिसका भला हो रहा है वह भी तीर्थपति को मारने में तत्पर है! शक्रेन्द्र तुरन्त वहां से आये और उनकी शक्ति से वह घण उसी लुहार पर गिरा। गिरते ही वह मृत्यु को प्राप्त हो गया। दूसरों को मारने वाला खुद मर जाता है। जो दूसरा के लिए अंगारे बरसाता है, उसी को अंगारे की शय्या मिलती है। यही घटना उस लुहार के साथ घटित हुई।
प्रभु ने विशालापुरी से विहार किया और ग्रामक नामक गांव के समीप पदार्पण किया। वहां विभेलक नामक उद्यान में विभेलक यक्ष के मन्दिर में कायोत्सर्ग करके आत्मस्थ बन गये। विभेलक यक्ष पूर्व भव में समकित प्राप्त था। सम्यक्त्व से अपतित होने के कारण उसका चरम